सिंधु जल संधि और भारत-पाकिस्तान के मध्य नदी जल विवाद:एक संतुलित दृष्टिकोण
परिचय
सिंधु जल संधि (Indus Waters Treaty) भारत और पाकिस्तान के बीच 1960 में हस्ताक्षरित एक ऐतिहासिक समझौता है, जो दक्षिण एशिया में जल संसाधन प्रबंधन के क्षेत्र में अपनी अनूठी भूमिका निभाता है। इस संधि का उद्देश्य सिंधु नदी प्रणाली के जल के वितरण को सुचारू बनाना और दोनों देशों के बीच संभावित जल विवादों को हल करना था। हाल के वर्षों में, यह संधि एक महत्वपूर्ण विवाद का विषय बन गई है, जिसमें पाकिस्तान ने भारत द्वारा जल संसाधनों के उपयोग को लेकर आपत्तियाँ जताई हैं।
हाल ही में, विश्व बैंक द्वारा नियुक्त 'निष्पक्ष विशेषज्ञ' समिति ने भारत के रुख का समर्थन किया है, जो इस विवाद के समाधान की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। इस लेख में, हम इस संधि की पृष्ठभूमि, भारत और पाकिस्तान के दृष्टिकोण, विश्व बैंक की भूमिका और भविष्य की संभावनाओं का विश्लेषण करेंगे।
सिंधु जल संधि की पृष्ठभूमि
1947 में भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बाद, दोनों देशों के बीच जल संसाधनों का मुद्दा विवाद का विषय बन गया। सिंधु नदी प्रणाली, जिसमें सिंधु, झेलम, चेनाब, रावी, ब्यास और सतलुज नदियाँ शामिल हैं, इन दोनों देशों के लिए जीवनरेखा की तरह कार्य करती हैं।
1951 में, विश्व बैंक की मध्यस्थता में एक समझौते की दिशा में प्रयास किए गए, जो अंततः 19 सितंबर 1960 को सिंधु जल संधि के रूप में सामने आया। इस संधि के तहत,
भारत को तीन पूर्वी नदियों (रावी, ब्यास और सतलुज) के जल पर संपूर्ण अधिकार दिया गया।
पाकिस्तान को तीन पश्चिमी नदियों (सिंधु, झेलम और चेनाब) के जल का अधिकतम उपयोग करने की अनुमति दी गई, हालांकि भारत को कुछ विशेष परिस्थितियों में इन नदियों का सीमित उपयोग करने की छूट दी गई।
यदि कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो इसे पहले द्विपक्षीय वार्ता द्वारा सुलझाने का प्रयास किया जाएगा। यदि समाधान नहीं निकलता, तो विश्व बैंक की मदद से 'निष्पक्ष विशेषज्ञ' समिति या 'मध्यस्थता न्यायालय' के माध्यम से निपटारा किया जाएगा।
संधि के कार्यान्वयन के बाद दशकों तक जल विवाद सीमित स्तर पर बने रहे, लेकिन हाल के वर्षों में यह एक बड़ा मुद्दा बन गया है।
भारत का संतुलित दृष्टिकोण
भारत हमेशा इस संधि का सम्मान करता आया है और उसने अपने अधिकारों के तहत जल संसाधनों का उपयोग करने की दिशा में संतुलित नीति अपनाई है। भारत का रुख इस विवाद में कुछ मुख्य बिंदुओं पर केंद्रित है:
1. तकनीकी विशेषज्ञता और निष्पक्ष समाधान
भारत का मानना है कि किसी भी जल विवाद को तकनीकी आधार पर हल किया जाना चाहिए, न कि राजनीतिक दबाव में आकर। इसलिए, उसने विवाद के समाधान के लिए 'निष्पक्ष विशेषज्ञ' समिति की मदद लेने पर जोर दिया है।
यह समिति जल विज्ञान, इंजीनियरिंग और संधि प्रावधानों के आधार पर निष्पक्ष निर्णय ले सकती है, जिससे किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से बचा जा सकता है।
2. संधि की मूल भावना के प्रति प्रतिबद्धता
भारत ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वह पाकिस्तान को मिलने वाले जल को रोकने या संधि का उल्लंघन करने का कोई इरादा नहीं रखता।
भारत का उद्देश्य जल संसाधनों का उचित और सतत उपयोग करना है, जो उसकी जिम्मेदार जल नीतियों का परिचायक है।
3. आधुनिक जल प्रबंधन और परियोजनाएँ
भारत ने हाल के वर्षों में झेलम और चेनाब नदियों पर कुछ जलविद्युत परियोजनाओं की घोषणा की है, जिन पर पाकिस्तान ने आपत्ति जताई है।
भारत का दावा है कि ये परियोजनाएँ संधि के दायरे में ही आती हैं और इनसे पाकिस्तान के जल आपूर्ति पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।
पाकिस्तान की आपत्तियाँ और पक्षपाती दृष्टिकोण
इसके विपरीत, पाकिस्तान ने इस विवाद को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ले जाने का प्रयास किया है। उसने नीदरलैंड्स स्थित स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (PCA) में इस मामले को ले जाने पर जोर दिया है, जो संधि के मौजूदा प्रावधानों के अनुरूप नहीं माना जाता।
1. अंतरराष्ट्रीयकरण की कोशिश
पाकिस्तान इस विवाद को अनावश्यक रूप से अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाकर भारत पर दबाव बनाने की रणनीति अपनाता रहा है।
यह दृष्टिकोण द्विपक्षीय वार्ता और विशेषज्ञ समाधान की प्रक्रिया को कमजोर करता है।
2. राजनीतिक आवश्यकताओं से प्रेरित रुख
पाकिस्तान की आपत्तियों के पीछे घरेलू राजनीतिक कारण भी देखे जाते हैं। देश में जल प्रबंधन की आंतरिक समस्याओं को नजरअंदाज करते हुए, वह अक्सर भारत पर जल संकट का आरोप लगाता है।
3. तकनीकी पहलुओं की अनदेखी
पाकिस्तान कई बार भारतीय परियोजनाओं पर आपत्ति जताते हुए तकनीकी तथ्यों को अनदेखा करता है, जो विवाद को और जटिल बना देता है।
विश्व बैंक की भूमिका और निष्पक्षता
विश्व बैंक सिंधु जल संधि का एक महत्वपूर्ण मध्यस्थ रहा है। इस विवाद में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है:
1. 'निष्पक्ष विशेषज्ञ' समिति की नियुक्ति
हाल ही में, विश्व बैंक ने 'निष्पक्ष विशेषज्ञ' समिति की नियुक्ति कर भारत के पक्ष को समर्थन दिया है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि संधि के तकनीकी पहलुओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, न कि राजनीतिक प्रभाव को।
2. संधि की शुचिता बनाए रखना
विश्व बैंक का यह निर्णय दिखाता है कि वह संधि की मूल भावना के अनुसार समाधान चाहता है, न कि एकतरफा निर्णयों के आधार पर।
भविष्य की संभावनाएँ और भारत की रणनीति
इस विवाद का समाधान क्षेत्रीय स्थिरता और द्विपक्षीय सहयोग के लिए आवश्यक है। भारत को इस दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने होंगे:
1. कूटनीतिक संवाद को मजबूत बनाना
भारत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने और जल संसाधनों के न्यायसंगत उपयोग की नीति पर जोर देना होगा।
2. तकनीकी दृष्टिकोण को प्राथमिकता देना
सभी विवादों को तकनीकी विशेषज्ञता और संधि के प्रावधानों के आधार पर हल करने की रणनीति अपनाई जानी चाहिए।
3. जल प्रबंधन में पारदर्शिता बढ़ाना
भारत को अपनी परियोजनाओं और जल प्रबंधन की रणनीतियों में पारदर्शिता बनाए रखनी होगी, जिससे पाकिस्तान को निराधार आरोप लगाने का अवसर न मिले।
निष्कर्ष
सिंधु जल संधि दक्षिण एशिया में शांति और सहयोग का प्रतीक है। इसे बनाए रखना भारत और पाकिस्तान दोनों की जिम्मेदारी है। भारत का संतुलित और तर्कसंगत दृष्टिकोण इस विवाद के समाधान की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। पाकिस्तान को भी यह समझना चाहिए कि जल संसाधनों के मुद्दे को राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग करने से कोई स्थायी समाधान नहीं निकलेगा।
अब यह पाकिस्तान पर निर्भर करता है कि वह इस अवसर का उपयोग अपनी नीतियों को अधिक व्यावहारिक और सहयोगपूर्ण बनाने के लिए करे। अगर दोनों देश इस विवाद को कूटनीतिक और तकनीकी दृष्टिकोण से हल करने की दिशा में बढ़ते हैं, तो यह संधि आने वाले दशकों तक जल संसाधनों के स्थायी प्रबंधन का आदर्श उदाहरण बनी रहेगी।
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