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Daily Current Affairs: 27 April 2025

दैनिक समसामयिकी लेख संकलन व विश्लेषण: 27 अप्रैल 2025 1-नये भारत में पितृत्व के अधिकार की पुनर्कल्पना सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार से तलाकशुदा और अविवाहित पुरुषों के सरोगेसी के अधिकार को लेकर मांगा गया जवाब एक महत्वपूर्ण संवैधानिक बहस की शुरुआत का संकेत देता है। महेश्वर एम.वी. द्वारा दायर याचिका केवल व्यक्तिगत आकांक्षा नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज में परिवार, पितृत्व और व्यक्तिगत गरिमा के बदलते मायनों को न्यायिक जांच के दायरे में लाती है। वर्तमान कानूनी परिदृश्य सरोगेसी (नियमन) अधिनियम, 2021 एक नैतिक और कानूनी प्रयास था, जिसका उद्देश्य वाणिज्यिक सरोगेसी के दुरुपयोग को रोकना और मातृत्व के शोषण को समाप्त करना था। परंतु, इस अधिनियम में सरोगेसी का अधिकार केवल विधिवत विवाहित दंपतियों और विधवा या तलाकशुदा महिलाओं तक सीमित किया गया, जबकि तलाकशुदा अथवा अविवाहित पुरुषों को इससे बाहर कर दिया गया। यह प्रावधान न केवल लैंगिक समानता के सिद्धांत के विपरीत है, बल्कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा के अधिकार पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है। संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 ...

Lifetime Ban on Convicted Politicians: Balancing Democracy, Justice, and the Constitution

 दोषी राजनेताओं पर आजीवन प्रतिबंध का प्रश्न: लोकतंत्र, न्याय और संविधान के मध्य संतुलन की तलाश

भारत एक विशाल लोकतांत्रिक देश है, जहाँ विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की त्रयी के बीच सत्ता का संतुलन लोकतंत्र की मूल भावना को जीवित रखता है। इसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण पहलू है जनता द्वारा अपने प्रतिनिधियों का चयन। किंतु जब जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ही किसी आपराधिक मामले में दोषी सिद्ध हो जाते हैं, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या उन्हें भविष्य में चुनाव लड़ने की अनुमति दी जानी चाहिए? हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई, जिसमें दोषी सांसदों और विधायकों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की माँग की गई थी। केंद्र सरकार ने इस याचिका का विरोध करते हुए कहा कि यह संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है और वर्तमान में निर्धारित छह वर्षों की अयोग्यता को बढ़ाकर आजीवन प्रतिबंध लगाना “अनुचित रूप से कठोर” होगा। इस मुद्दे पर उठी बहस लोकतंत्र, न्याय और संविधान के बीच संतुलन की आवश्यकता को रेखांकित करती है।

"Lifetime Ban on Convicted Politicians: Balancing Democracy, Justice, and the Constitution"


1. पृष्ठभूमि और महत्त्व

भारतीय लोकतंत्र विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्रों में से एक है, जहाँ प्रत्येक वयस्क नागरिक को मताधिकार प्राप्त है। देश की विधायिका में प्रवेश के लिए चुनाव लड़ने का अधिकार भी समान रूप से नागरिकों को दिया गया है, बशर्ते वे कानूनी रूप से अयोग्य न हों। किंतु जब निर्वाचित प्रतिनिधि आपराधिक मामलों में दोषी पाए जाते हैं, तो समाज में एक नैतिक और कानूनी द्वंद्व उत्पन्न होता है।

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (Representation of the People Act, 1951) के तहत, किसी भी आपराधिक मामले में दोषी ठहराए गए व्यक्ति को न्यूनतम छह वर्षों तक चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराया जाता है। यह अयोग्यता उसकी सजा पूरी होने के बाद आरंभ होती है। इस व्यवस्था का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि गंभीर अपराधों में दोषी व्यक्ति लोकतंत्र के सर्वोच्च सदन में स्थान न पाएं।

हालाँकि, पिछले कुछ वर्षों में भ्रष्टाचार, हिंसा और अन्य आपराधिक गतिविधियों में लिप्त राजनेताओं की संख्या बढ़ने की खबरें सामने आती रही हैं। इससे जनमानस में यह भावना प्रबल हुई है कि राजनीति में शुचिता और पारदर्शिता लाने के लिए और कड़े कदम उठाए जाने चाहिए। याचिका में आजीवन प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव इसी भावना की अभिव्यक्ति है, जो राजनीति को ‘दागी’ लोगों से मुक्त रखने की कोशिश करता है।

2. केंद्र सरकार का रुख

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में आजीवन प्रतिबंध लगाने का विरोध करते हुए तर्क दिया है कि मौजूदा छह वर्षों की अयोग्यता अवधि को आजीवन प्रतिबंध में बदलना “अनुचित रूप से कठोर” होगा। सरकार का मानना है कि सभी नागरिकों को लोकतंत्र में भाग लेने का अवसर मिलना चाहिए और एक दोषी व्यक्ति को भी, सजा पूरी होने के बाद, अपनी नागरिक जिम्मेदारियों को पुनः निभाने का अधिकार मिलना चाहिए।

सरकार का यह भी कहना है कि आजीवन प्रतिबंध लगाना संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, क्योंकि यह व्यक्ति को उसके मौलिक अधिकारों से वंचित कर सकता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 19 (विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) के साथ ही अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) के व्यापक स्वरूप का हवाला देते हुए सरकार ने दलील दी है कि अपराध के बावजूद एक व्यक्ति को जीवनभर राजनीतिक प्रक्रिया से बाहर रखना न्यायसंगत नहीं माना जा सकता।

3. संवैधानिक और कानूनी पहलू

भारत का संविधान एक “जीवंत दस्तावेज” माना जाता है, जिसमें समय-समय पर संशोधन करके बदलती परिस्थितियों के अनुरूप कानूनों और नीतियों को ढाला जाता रहा है। लेकिन यह भी सत्य है कि संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों और लोकतांत्रिक सिद्धांतों की जड़ें काफी गहरी हैं।

1. जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951

धारा 8(1), 8(2) और 8(3) के अंतर्गत विभिन्न अपराधों में दोषी पाए जाने पर अयोग्यता की अवधि निर्धारित की गई है।

गंभीर अपराधों जैसे कि आतंकवादी गतिविधियों, भ्रष्टाचार, बलात्कार, हत्या आदि के लिए सजा होने पर व्यक्ति को चुनाव लड़ने से रोक दिया जाता है।

2. संविधान के अनुच्छेद 102 और 191

अनुच्छेद 102 (संसद के सदस्यों के लिए) और अनुच्छेद 191 (विधानसभाओं के सदस्यों के लिए) अयोग्यता के आधारों का उल्लेख करते हैं।

इसमें भी यह प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति कानून द्वारा निर्धारित अपराध में दोषी ठहराया गया है, तो वह चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य होगा।

3. मौलिक अधिकारों की सुरक्षा

संविधान का अनुच्छेद 14 सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार प्रदान करता है।

अनुच्छेद 19(1)(a) विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, जो राजनीति में भाग लेने की आजादी को भी प्रभावित करता है।

अनुच्छेद 21 प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है, जिसमें जीने का अधिकार, स्वतंत्रता, गरिमा, और पुनर्वास का अधिकार शामिल है।

यही वजह है कि आजीवन प्रतिबंध जैसे कठोर कदम को अपनाने से पहले व्यापक बहस और सावधानीपूर्वक विचार-विमर्श की आवश्यकता महसूस की जाती है।

4. लोकतंत्र की जड़ें और पुनर्वास का सिद्धांत

लोकतंत्र सिर्फ एक शासन प्रणाली भर नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा मूल्य-आधारित तंत्र है जो व्यक्तियों को पुनर्वास का अवसर देता है। एक दोषी व्यक्ति भी सजा काटने के बाद सामान्य जीवन जीने का हक रखता है। यदि कोई व्यक्ति अपराध करता है, तो उसे कानून के अनुसार सजा मिलती है, लेकिन सजा पूरी होने के बाद उसे समाज की मुख्यधारा में लौटने का अधिकार भी मिलना चाहिए।

“पुनर्वास” का सिद्धांत न्याय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जिसके अनुसार दंड का उद्देश्य केवल प्रतिशोध या अपराधी को दंडित करना ही नहीं, बल्कि उसे सामाजिक और नैतिक रूप से सुधारकर समाज में पुनः स्थापित करना भी है। आजीवन प्रतिबंध का अर्थ होगा कि व्यक्ति को राजनीति के क्षेत्र में कभी भी वापसी का मौका नहीं मिलेगा, भले ही वह अपराध के लिए पश्चाताप करे, सुधार करे या समाज में सकारात्मक योगदान देना चाहे।

5. जनता की अपेक्षाएँ और नैतिक आक्रोश

दूसरी ओर, जनता के मन में गहरा आक्रोश भी है। जब कोई राजनेता भ्रष्टाचार, हत्या, बलात्कार या अन्य गंभीर अपराधों में दोषी पाया जाता है, तो यह लोकतंत्र और नैतिक मूल्यों के साथ विश्वासघात जैसा लगता है। जनता यह अपेक्षा रखती है कि जिन लोगों पर उसे शासन चलाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है, वे साफ-सुथरी छवि के हों और लोकहित में कार्य करें।

अक्सर देखा गया है कि गंभीर अपराधों में दोषी पाए गए कुछ राजनेता अपनी राजनीतिक पहुँच और धनबल के कारण या तो सजा से बच निकलते हैं या सजा के बाद भी राजनीतिक ताकत बटोरने में सफल हो जाते हैं। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए हानिकारक है, क्योंकि इससे राजनीतिक तंत्र में भ्रष्टाचार और आपराधिकरण को प्रोत्साहन मिलता है।

6. विपक्षी दृष्टिकोण: आजीवन प्रतिबंध के पक्ष में तर्क

1. राजनीति में शुचिता और पारदर्शिता

आजीवन प्रतिबंध से यह संदेश जाएगा कि राजनीति एक पवित्र दायित्व है, जहाँ दागी व्यक्तियों के लिए स्थान नहीं होना चाहिए।

इससे जनता का लोकतांत्रिक संस्थानों पर विश्वास मजबूत होगा।

2. नैतिक उच्चासन का निर्माण

यदि कोई व्यक्ति गंभीर अपराध में दोषी सिद्ध हो चुका है, तो उसे भविष्य में जनता के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने का नैतिक अधिकार नहीं होना चाहिए।

इससे राजनीतिक दलों को भी ऐसे उम्मीदवारों को टिकट देने से पहले सौ बार सोचने पर मजबूर होना पड़ेगा।

3. राजनीतिक अपराधीकरण पर रोक

भारतीय राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं का प्रभाव कम नहीं है। आजीवन प्रतिबंध से आपराधिक पृष्ठभूमि वालों को राजनीति में आने से हतोत्साहित किया जा सकता है।

7. समस्याएँ और चुनौतियाँ

1. गंभीर और गैर-गंभीर अपराधों के बीच विभेद

कानून में अपराधों की गंभीरता के आधार पर अलग-अलग श्रेणियाँ बनाई गई हैं। लेकिन कभी-कभी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता या दुर्भावना से प्रेरित मामलों में भी लोगों को दोषी ठहराया जा सकता है।

यदि किसी व्यक्ति को कम गंभीर अपराध या राजनीतिक साज़िश के तहत दोषी ठहराया गया हो, तब भी आजीवन प्रतिबंध लगाने से उसके जीवन का बड़ा हिस्सा प्रभावित हो सकता है।

2. पुनर्वास का प्रश्न

न्याय व्यवस्था का एक उद्देश्य अपराधियों का पुनर्वास भी है। आजीवन प्रतिबंध से यह सिद्धांत कमजोर पड़ता है, क्योंकि दोषी व्यक्ति को राजनीतिक जीवन में लौटने का कोई अवसर नहीं मिलेगा।

3. लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन

मताधिकार और चुनाव लड़ने का अधिकार भले ही मूल अधिकार न हों, लेकिन ये लोकतंत्र की मूल भावना के साथ जुड़े हैं।

आजीवन प्रतिबंध लगाने से नागरिकों के सामने अपने प्रतिनिधि चुनने के विकल्प सीमित हो सकते हैं।

4. संविधान संशोधन और वैधानिक प्रक्रिया

यदि सुप्रीम कोर्ट आजीवन प्रतिबंध को सही ठहराता है, तो इसके लिए व्यापक कानूनी संशोधनों की आवश्यकता होगी।

यह कार्य सिर्फ न्यायालय के स्तर पर ही नहीं, बल्कि संसद के स्तर पर भी लंबी बहस और प्रक्रिया की माँग करेगा।

8. केंद्र सरकार की भूमिका और वैकल्पिक समाधान

केंद्र सरकार ने अपना रुख स्पष्ट करते हुए कहा है कि आजीवन प्रतिबंध संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है और यह “अनुचित रूप से कठोर” कदम होगा। हालाँकि, सरकार को भी यह समझना होगा कि राजनीति में आपराधिकरण की समस्या गंभीर है और इस पर कठोर कदम उठाना आवश्यक है।

वैकल्पिक रूप से कुछ समाधान इस प्रकार हो सकते हैं—

1. अपराधों की श्रेणीकरण

अपराधों को उनकी गंभीरता के आधार पर श्रेणियों में विभाजित किया जाए।

बेहद गंभीर अपराधों (भ्रष्टाचार, हत्या, बलात्कार, आतंकवाद) में दोषी पाए जाने पर लंबी अवधि की अयोग्यता, जबकि अपेक्षाकृत कम गंभीर अपराधों के लिए वर्तमान छह वर्षों की अवधि लागू रहे।

2. निर्वाचन आयोग को अधिक शक्तियाँ

निर्वाचन आयोग को उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड की जाँच और मूल्यांकन के लिए अधिक स्वायत्तता और अधिकार दिए जाएँ।

चुनाव प्रचार के दौरान उम्मीदवारों के आपराधिक मामलों का व्यापक प्रचार-प्रसार अनिवार्य किया जाए, ताकि मतदाता सूचित निर्णय ले सकें।

3. तेज सुनवाई और विशेष अदालतें

राजनेताओं से जुड़े आपराधिक मामलों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट या विशेष अदालतें बनाई जाएँ, ताकि लंबे समय तक मामलों का लंबित रहना कम हो सके।

इससे निर्दोष लोगों को राहत मिलेगी और दोषी लोगों को शीघ्रता से दंडित किया जा सकेगा।

4. राजनीतिक दलों की जवाबदेही

राजनीतिक दलों को इस बात के लिए जवाबदेह ठहराया जाए कि वे दागी या आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों को टिकट क्यों देते हैं।

दलों के लिए एक “आचार संहिता” तैयार की जाए, जिसके अंतर्गत वे अपने उम्मीदवारों की छवि को लेकर पारदर्शी हों।

5. सामाजिक और नैतिक जागरूकता

मतदाताओं के बीच जागरूकता अभियान चलाए जाएँ, ताकि वे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को वोट देने से बचें।

नागरिक समाज और मीडिया को भी ऐसी जानकारी को उजागर करने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।

9. सुप्रीम कोर्ट और न्यायिक सक्रियता

भारत का सर्वोच्च न्यायालय समय-समय पर चुनाव सुधारों के संबंध में अहम फैसले देता रहा है। वर्ष 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया था, जिसके तहत दोषी ठहराए गए सांसदों और विधायकों की सदस्यता तुरंत समाप्त हो जाती है। इससे पहले, ऐसे मामलों में अपील लंबित रहने तक सदस्यता बनी रहती थी।

सुप्रीम कोर्ट की भूमिका इस मुद्दे पर भी निर्णायक हो सकती है। यदि न्यायालय आजीवन प्रतिबंध की याचिका को स्वीकार कर लेता है, तो यह भारतीय राजनीति में एक बड़ा बदलाव लाएगा। लेकिन न्यायालय को संविधान के मौलिक सिद्धांतों, पुनर्वास के अधिकार और लोकतांत्रिक संतुलन को भी ध्यान में रखना होगा।

10. निष्कर्ष: संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता

भारत में लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हम अपने संस्थानों को कितना पारदर्शी, जवाबदेह और नैतिक बना पाते हैं। दोषी राजनेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की माँग एक ओर तो राजनीति में शुचिता और पारदर्शिता लाने का प्रयास है, वहीं दूसरी ओर यह दंडात्मक दृष्टिकोण पुनर्वास और मौलिक अधिकारों के सिद्धांत से टकरा सकता है।

सर्वोत्तम समाधान वही होगा जो अपराधों की गंभीरता के आधार पर अलग-अलग समयावधि के प्रतिबंध का प्रावधान करे और न्यायपालिका, विधायिका तथा कार्यपालिका के बीच संतुलन बनाए रखे। राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए समाज के सभी घटकों—सरकार, राजनीतिक दलों, न्यायालयों, नागरिक समाज और मीडिया—को एकजुट होकर प्रयास करना होगा।

सबसे पहले, राजनीतिक दलों को आत्मनिरीक्षण करते हुए दागी छवि वाले नेताओं को टिकट देने से बचना होगा।

दूसरे, न्यायपालिका को ऐसे मामलों में तेजी से न्याय प्रदान करना चाहिए, ताकि दोषियों को सजा और निर्दोषों को राहत मिल सके।

तीसरे, जनता को भी अपना दायित्व निभाते हुए जागरूक मतदाता बनना होगा और आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को वोट देने से परहेज करना होगा।

चौथे, सरकार और विधायिका को मिलकर जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में ऐसे प्रावधान जोड़ने चाहिए, जिनसे राजनीति में आपराधिकरण पर प्रभावी रोक लग सके।

अंततः, यह मुद्दा सिर्फ कानून या न्यायालय का ही नहीं है, बल्कि हमारे सामूहिक नैतिक मूल्यों और लोकतांत्रिक आदर्शों से भी जुड़ा हुआ है। यदि हम राजनीति में आपराधिकरण को जड़ से समाप्त करना चाहते हैं, तो कठोर कानूनों के साथ-साथ नैतिक जागरूकता, पारदर्शी प्रक्रियाओं और एक जिम्मेदार नागरिक समाज की भी आवश्यकता होगी। तभी हम एक ऐसे लोकतंत्र की कल्पना कर सकते हैं, जो न केवल विशालतम है, बल्कि विश्वसनीय और आदर्शों पर आधारित भी है।

(उपरोक्त लेख का उद्देश्य विषय की व्यापक समझ, संवैधानिक संदर्भ और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत करना है।)


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✍️ARVIND SINGH PK REWA

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