नक्सलवाद: जंगलों से शहरी क्षेत्रों तक बढ़ता खतरा
भूमिका
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में एक बयान में कहा कि नक्सलवाद जंगलों से लगभग समाप्त हो रहा है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में इसकी जड़ें तेज़ी से फैल रही हैं। उन्होंने यह भी चिंता जताई कि कुछ राजनीतिक दल नक्सली विचारधारा का समर्थन कर रहे हैं, जिससे देश की सुरक्षा को गंभीर खतरा हो सकता है। यह बयान न केवल भारत में नक्सलवाद के बदलते स्वरूप को दर्शाता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि नक्सलवाद अब केवल एक सैन्य या सुरक्षा समस्या नहीं, बल्कि एक वैचारिक और सामाजिक चुनौती भी बन चुका है।
नक्सलवाद की समस्या भारत में दशकों से बनी हुई है। यह एक उग्रवादी आंदोलन है, जो मुख्य रूप से वामपंथी विचारधारा से प्रेरित है और माओवाद के सिद्धांतों पर आधारित है। पहले यह समस्या जंगलों और दूर-दराज़ के इलाकों तक सीमित थी, लेकिन अब यह शहरी क्षेत्रों में भी अपनी पैठ बना रही है, जिसे अक्सर "अर्बन नक्सलवाद" कहा जाता है। यह नया स्वरूप भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक नई चुनौती पेश कर रहा है।
नक्सलवाद का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
नक्सलवाद की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से हुई थी, जब चारु मजूमदार, कानू सान्याल और जंगलबंदी जैसे नेताओं ने सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया। यह विद्रोह मूल रूप से ज़मींदारों और किसानों के बीच भूमि अधिकारों को लेकर शुरू हुआ था, लेकिन धीरे-धीरे यह एक व्यापक उग्रवादी आंदोलन में बदल गया। 1980 और 1990 के दशक में यह समस्या झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, बिहार, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के जंगलों में फैल गई।
सरकार ने इस उग्रवादी आंदोलन से निपटने के लिए कई सुरक्षात्मक और विकासात्मक उपाय अपनाए। 2009 में "ऑपरेशन ग्रीन हंट" की शुरुआत हुई, जिसमें सुरक्षा बलों ने माओवादियों के गढ़ों पर बड़े पैमाने पर कार्रवाई की। इसके अलावा, सरकार ने सड़क, बिजली, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए भी योजनाएँ चलाईं। इन प्रयासों के कारण नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में उग्रवाद की घटनाएँ कम हुईं, लेकिन यह पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ।
शहरी नक्सलवाद: एक नई चुनौती
हाल के वर्षों में, "अर्बन नक्सल" शब्द चर्चा में आया है। इसका तात्पर्य उन विचारधारात्मक समूहों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और कुछ गैर-सरकारी संगठनों से है, जो नक्सली विचारधारा का समर्थन करते हैं या इसे बौद्धिक आधार प्रदान करते हैं। सरकार का मानना है कि ये लोग सीधे हथियार नहीं उठाते, लेकिन युवाओं और समाज के अन्य वर्गों को कट्टरपंथी विचारधारा की ओर धकेलते हैं।
शहरी नक्सलवाद का स्वरूप विभिन्न तरीकों से देखा जा सकता है।
1. शैक्षिक संस्थानों में वैचारिक प्रसार –
कुछ विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों में छात्रों को कट्टरपंथी विचारों की ओर प्रेरित किया जाता है। वामपंथी विचारधारा के नाम पर युवाओं को सरकार और लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ खड़ा किया जाता है।
2. बौद्धिक समर्थन –
कुछ लेखक, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता नक्सली हिंसा को क्रांतिकारी संघर्ष बताकर उसे न्यायोचित ठहराने की कोशिश करते हैं। वे सरकार की नीतियों की आलोचना तो करते हैं, लेकिन नक्सली हिंसा की निंदा नहीं करते।
3. वित्तीय और कानूनी समर्थन –
कई गैर-सरकारी संगठन (NGO) कथित रूप से नक्सली गतिविधियों को वित्तीय और कानूनी सहायता प्रदान करते हैं।
4. सोशल मीडिया और डिजिटल प्रचार –
इंटरनेट और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग नक्सली विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए किया जाता है। डिजिटल माध्यमों से युवाओं को प्रभावित किया जाता है और सरकार के खिलाफ भड़काने का प्रयास किया जाता है।
राजनीतिक दलों की भूमिका
प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी आरोप लगाया कि कुछ राजनीतिक दल नक्सली विचारधारा का समर्थन कर रहे हैं। यह सच है कि भारत में कई बार राजनीतिक दलों पर नक्सलियों से सहानुभूति रखने या उनके प्रति नरम रुख अपनाने के आरोप लगे हैं। कुछ राजनीतिक पार्टियाँ नक्सली समस्या को सरकारी दमन का नतीजा बताती हैं और इसे एक सामाजिक अन्याय का प्रतिरोध मानती हैं।
हालांकि, नक्सलवाद का समर्थन राजनीतिक कारणों से किया जाए या वैचारिक कारणों से, यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक है। हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकती, और यदि कोई भी राजनीतिक दल या विचारधारा इस प्रकार की हिंसा को बढ़ावा देती है, तो यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन सकता है।
सरकार द्वारा उठाए गए कदम
सरकार ने शहरी नक्सलवाद से निपटने के लिए कई कदम उठाए हैं, जिनमें शामिल हैं—
1. सुरक्षा एजेंसियों की सतर्कता –
राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA), पुलिस और अन्य खुफिया एजेंसियाँ अर्बन नक्सल नेटवर्क को उजागर करने के लिए सक्रिय हैं।
2. आईटी और सोशल मीडिया पर निगरानी –
सोशल मीडिया और डिजिटल माध्यमों पर कट्टरपंथी विचारधारा के प्रसार को रोकने के लिए कड़े कदम उठाए जा रहे हैं।
3. NGO और फंडिंग पर नियंत्रण –
संदिग्ध गैर-सरकारी संगठनों की फंडिंग की जांच की जा रही है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी संस्था नक्सलवाद को अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन न दे।
4. शिक्षा और जागरूकता कार्यक्रम –
युवाओं को नक्सलवाद की वास्तविकता से अवगत कराने और उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास बनाए रखने के लिए विभिन्न अभियान चलाए जा रहे हैं।
समाधान और भविष्य की रणनीति
शहरी नक्सलवाद से निपटने के लिए केवल सैन्य कार्रवाई पर्याप्त नहीं होगी। इसके लिए एक व्यापक रणनीति की आवश्यकता है—
1. शिक्षा प्रणाली में सुधार –
वामपंथी विचारधारा के अंधानुकरण के बजाय तार्किक सोच को बढ़ावा देना आवश्यक है।
2. युवाओं के लिए रोजगार के अवसर –
यदि युवाओं को उचित रोजगार और अवसर मिलेंगे, तो वे गलत विचारधाराओं के शिकार नहीं बनेंगे।
3. समाज में जागरूकता –
लोगों को यह समझाने की जरूरत है कि नक्सलवाद की विचारधारा हिंसा को जन्म देती है और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए हानिकारक है।
4. संवाद और पुनर्वास –
जो लोग भटक गए हैं, उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए सरकार को पुनर्वास योजनाओं पर ध्यान देना चाहिए।
निष्कर्ष
नक्सलवाद एक जटिल समस्या है, जो समय के साथ बदल रही है। सरकार ने जंगलों में नक्सलवाद पर काफ़ी हद तक नियंत्रण पा लिया है, लेकिन अब यह शहरी क्षेत्रों में एक वैचारिक संघर्ष के रूप में उभर रहा है। अर्बन नक्सलवाद से निपटने के लिए सरकार, समाज, शिक्षाविदों और राजनीतिक दलों को मिलकर काम करना होगा।
हिंसा और आतंक से कभी किसी समस्या का समाधान नहीं निकला है। नक्सलवाद की समस्या को केवल सैन्य कार्रवाई से नहीं, बल्कि समाज में समावेशी विकास, शिक्षा और जागरूकता के जरिए हल किया जा सकता है। लोकतंत्र में असहमति का स्थान है, लेकिन हिंसा के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
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