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Daily Current Affairs: 27 April 2025

दैनिक समसामयिकी लेख संकलन व विश्लेषण: 27 अप्रैल 2025 1-नये भारत में पितृत्व के अधिकार की पुनर्कल्पना सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार से तलाकशुदा और अविवाहित पुरुषों के सरोगेसी के अधिकार को लेकर मांगा गया जवाब एक महत्वपूर्ण संवैधानिक बहस की शुरुआत का संकेत देता है। महेश्वर एम.वी. द्वारा दायर याचिका केवल व्यक्तिगत आकांक्षा नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज में परिवार, पितृत्व और व्यक्तिगत गरिमा के बदलते मायनों को न्यायिक जांच के दायरे में लाती है। वर्तमान कानूनी परिदृश्य सरोगेसी (नियमन) अधिनियम, 2021 एक नैतिक और कानूनी प्रयास था, जिसका उद्देश्य वाणिज्यिक सरोगेसी के दुरुपयोग को रोकना और मातृत्व के शोषण को समाप्त करना था। परंतु, इस अधिनियम में सरोगेसी का अधिकार केवल विधिवत विवाहित दंपतियों और विधवा या तलाकशुदा महिलाओं तक सीमित किया गया, जबकि तलाकशुदा अथवा अविवाहित पुरुषों को इससे बाहर कर दिया गया। यह प्रावधान न केवल लैंगिक समानता के सिद्धांत के विपरीत है, बल्कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा के अधिकार पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है। संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 ...

Daily Current Affairs: 27 April 2025

दैनिक समसामयिकी लेख संकलन व विश्लेषण: 27 अप्रैल 2025


1-नये भारत में पितृत्व के अधिकार की पुनर्कल्पना

सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार से तलाकशुदा और अविवाहित पुरुषों के सरोगेसी के अधिकार को लेकर मांगा गया जवाब एक महत्वपूर्ण संवैधानिक बहस की शुरुआत का संकेत देता है। महेश्वर एम.वी. द्वारा दायर याचिका केवल व्यक्तिगत आकांक्षा नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज में परिवार, पितृत्व और व्यक्तिगत गरिमा के बदलते मायनों को न्यायिक जांच के दायरे में लाती है।

वर्तमान कानूनी परिदृश्य

सरोगेसी (नियमन) अधिनियम, 2021 एक नैतिक और कानूनी प्रयास था, जिसका उद्देश्य वाणिज्यिक सरोगेसी के दुरुपयोग को रोकना और मातृत्व के शोषण को समाप्त करना था। परंतु, इस अधिनियम में सरोगेसी का अधिकार केवल विधिवत विवाहित दंपतियों और विधवा या तलाकशुदा महिलाओं तक सीमित किया गया, जबकि तलाकशुदा अथवा अविवाहित पुरुषों को इससे बाहर कर दिया गया। यह प्रावधान न केवल लैंगिक समानता के सिद्धांत के विपरीत है, बल्कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा के अधिकार पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है।

संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन

संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 को देश के लोकतांत्रिक ढांचे के मूल स्तंभों के रूप में देखा जाता है। अनुच्छेद 14 समानता का वादा करता है, और अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार को केवल अस्तित्व तक सीमित नहीं रखता, बल्कि उसमें गरिमामय जीवन जीने का अधिकार भी समाहित है। जब विधि एक विशेष वर्ग (यहां तलाकशुदा या अविवाहित पुरुष) को अन्य समान रूप से इच्छुक व्यक्तियों की तुलना में सरोगेसी का अवसर नहीं देती, तो वह अनुचित भेदभाव का उदाहरण बन जाती है।

इसके अतिरिक्त, न्यायपालिका ने समय-समय पर प्रजनन अधिकारों को व्यक्तिगत स्वायत्तता के महत्वपूर्ण पहलू के रूप में मान्यता दी है। 'निजता के अधिकार' (Right to Privacy) को एक मौलिक अधिकार घोषित करने वाले Puttaswamy निर्णय में भी व्यक्तिगत प्रजनन विकल्पों को स्वतंत्रता के दायरे में लाया गया था।

समाज और परिवार की बदलती अवधारणाएँ

भारतीय समाज तेजी से विकसित हो रहा है। एकल माता-पिता, सह-पालन (co-parenting), और विविध पारिवारिक ढांचे आज के सामाजिक परिदृश्य का हिस्सा बन चुके हैं। परिवार अब केवल एक पारंपरिक 'विवाहित पुरुष और महिला' के गठबंधन तक सीमित नहीं रह गया है। इस पृष्ठभूमि में, कानून का इस बदली हुई सामाजिक वास्तविकता के साथ तालमेल बिठाना आवश्यक है।

तलाकशुदा या अविवाहित पुरुष का सरोगेसी के माध्यम से पितृत्व की आकांक्षा कोई अपवाद नहीं है; बल्कि यह मान्यता है कि पालन-पोषण की क्षमता केवल वैवाहिक स्थिति या लिंग पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। माता-पिता बनने की इच्छा एक मानवीय भावना है जिसे संवैधानिक संरक्षण मिलना चाहिए।

विधायी सोच में व्यापकता की आवश्यकता

सरोगेसी कानून में संशोधन करते समय विधायकों को केवल शोषण के भय के आधार पर व्यापक निषेध लगाने के बजाय, अधिक संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। कठोर प्रतिबंधों के बजाय नियमन और निगरानी के उपाय विकसित किए जाने चाहिए जो इच्छुक एकल अभिभावकों के अधिकारों और सरोगेट माताओं के हितों, दोनों की रक्षा करें।

यदि राज्य स्वयं को 'कल्याणकारी राज्य' के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है, तो उसे हर व्यक्ति की गरिमा, स्वायत्तता और समानता के अधिकार को संवैधानिक प्राथमिकता देनी होगी।

आगे का रास्ता

सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाया गया यह प्रश्न भारत में पितृत्व, परिवार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों को लेकर एक नई संवैधानिक सोच को प्रेरित कर सकता है। न्यायालय को इस अवसर का उपयोग एक ऐसा मानक स्थापित करने के लिए करना चाहिए जो व्यक्तिगत गरिमा, लैंगिक समानता और सामाजिक समावेशन के आदर्शों को मजबूती से उभार सके।

यदि भारत को वास्तव में एक प्रगतिशील और समावेशी लोकतंत्र बनना है, तो कानूनों को भी उस दिशा में विकसित होना होगा, जो हर नागरिक को बिना भेदभाव के जीवन के हर पहलू में गरिमा के साथ जीने का अधिकार सुनिश्चित करे।


2-विचार | बहुजन प्रतीकों की राजनीति, हमारी सामूहिक चुप्पी और लोकतंत्र का भविष्य

भारतीय लोकतंत्र के सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में बहुजन नायकों—महात्मा ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले और डॉ. बी.आर. आंबेडकर—की विरासत न केवल ऐतिहासिक प्रेरणा का स्रोत है, बल्कि समकालीन सामाजिक न्याय के विमर्श का आधार भी है। हाल ही में प्रख्यात विद्वान कांचा इलैया द्वारा उठाए गए सवाल इस गंभीर प्रश्न को रेखांकित करते हैं: क्या हम इन नायकों के विचारों को वास्तव में आत्मसात करने को तैयार हैं, या हमारी श्रद्धा केवल प्रतीकात्मकता और स्मारकों तक सीमित है? यह प्रश्न न केवल सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण से, बल्कि संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) की दृष्टि से भी अत्यंत प्रासंगिक है, क्योंकि यह भारतीय लोकतंत्र, सामाजिक समावेशन, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मुद्दों से गहराई से जुड़ा है।

'फुले' फिल्म विवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (CBFC) द्वारा 'फुले' फिल्म के प्रदर्शन पर की गई कार्रवाई और सरकार की इस पर मौन सहमति एक चिंताजनक प्रवृत्ति को दर्शाती है। यह केवल सेंसरशिप का मामला नहीं है, बल्कि उन ऐतिहासिक सत्यों को दबाने का प्रयास है, जिन्हें फुले और आंबेडकर जैसे समाज सुधारकों ने उजागर किया था। UPSC के दृष्टिकोण से, यह मुद्दा संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और इसके उचित प्रतिबंधों [अनुच्छेद 19(2)] के बीच तनाव को रेखांकित करता है। CBFC का यह कदम न केवल रचनात्मक स्वतंत्रता का हनन करता है, बल्कि उन सामाजिक सुधार आंदोलनों की स्मृति को भी कमजोर करता है, जिन्होंने भारत के आधुनिक लोकतांत्रिक ढांचे को आकार दिया।

इसके अतिरिक्त, यह विवाद सामाजिक समावेशन और प्रतिनिधित्व के व्यापक प्रश्न को उठाता है। बहुजन नायकों के चित्रण को नियंत्रित करने का प्रयास उन समुदायों की आवाज को दबाने का प्रयास है, जो ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहे हैं। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 (जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव का निषेध) और अनुच्छेद 46 (शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक समानता के लिए कमजोर वर्गों के उत्थान) के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है।

राजनीतिक जोखिम और सामाजिक न्याय का दावा

भारतीय जनता पार्टी (BJP) जैसी पार्टियां, जो सामाजिक समावेशन और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) सशक्तीकरण का दावा करती हैं, इस प्रकार के विवादों में अपनी चुप्पी से राजनीतिक जोखिम मोल ले रही हैं। बहुजन आंदोलन केवल ऐतिहासिक स्मृति नहीं है; यह आज भी सामाजिक-आर्थिक असमानताओं के खिलाफ एक जीवंत संघर्ष है। मंडल आयोग की सिफारिशों और OBC आरक्षण के बाद से, बहुजन समुदायों की राजनीतिक चेतना में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। ऐसे में, उनकी भावनाओं के प्रति असंवेदनशीलता न केवल सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता पर सवाल उठाती है, बल्कि दीर्घकालिक राजनीतिक नुकसान भी पहुंचा सकती है।

UPSC के संदर्भ में, यह मुद्दा सामाजिक न्याय, समावेशी शासन, और संवैधानिक नैतिकता (constitutional morality) जैसे विषयों से जुड़ा है। परीक्षा में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नों में सामाजिक समावेशन और लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच संतुलन की चर्चा होती है। इस दृष्टिकोण से, फुले और आंबेडकर की विरासत को केवल प्रतीकात्मक सम्मान तक सीमित रखना संवैधानिक आदर्शों के साथ विश्वासघात है।

नारीवाद और जातिगत न्याय का अधूरापन

कांचा इलैया द्वारा सावित्रीबाई फुले के चित्रण पर मुख्यधारा नारीवादी आंदोलनों की चुप्पी पर उठाया गया सवाल भारतीय नारीवाद की सीमाओं को उजागर करता है। सावित्रीबाई केवल महिलाओं की शिक्षा की प्रणेता नहीं थीं; वे जातिगत और लैंगिक उत्पीड़न के खिलाफ एक क्रांतिकारी आवाज थीं। उनकी विरासत पर हमला केवल नारीवादी आंदोलन का अपमान नहीं, बल्कि बहुजन स्वाभिमान पर भी प्रहार है।

UPSC के दृष्टिकोण से, यह मुद्दा सामाजिक आंदोलनों की अंतर्संबंधित प्रकृति (intersectionality) को रेखांकित करता है। नारीवाद, यदि जातिगत न्याय के सवालों को समाहित नहीं करता, तो वह अधूरा और विशेषाधिकार-केंद्रित (privileged) रह जाता है। यह भारतीय समाज में सामाजिक सुधार आंदोलनों की ऐतिहासिक जटिलताओं और उनके समकालीन प्रासंगिकता को समझने की आवश्यकता को दर्शाता है। GS-1 (सामाजिक सशक्तीकरण और समाज सुधार) और GS-2 (शासन और सामाजिक न्याय) के लिए यह एक महत्वपूर्ण विश्लेषणात्मक बिंदु है।

लोकतंत्र की चुनौतियां और भविष्य

फुले-आंबेडकर की विरासत को पुनर्परिभाषित या नियंत्रित करने का कोई भी प्रयास भारतीय लोकतंत्र की नींव को कमजोर करता है। संविधान का प्रस्तावना सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का वादा करता है, और यह तभी संभव है जब ऐतिहासिक सत्यों को स्वीकार किया जाए और वंचित समुदायों की आवाज को मंच प्रदान किया जाए। प्रतीकात्मक श्रद्धांजलियों और स्मारकों के बजाय, इन नायकों के विचारों के साथ सच्चा संवाद आवश्यक है।

UPSC के दृष्टिकोण से, यह मुद्दा निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार करने को प्रेरित करता है:

संवैधानिक मूल्य और सामाजिक न्याय: फुले और आंबेडकर की विचारधारा संविधान के मूल सिद्धांतों—समानता, स्वतंत्रता, और बंधुत्व—का आधार है। इन विचारों को दबाना संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन है।

संस्थागत जवाबदेही: CBFC जैसे संस्थानों की स्वायत्तता और निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं, जो GS-2 के लिए एक महत्वपूर्ण विषय है।

सामाजिक समावेशन और लोकतांत्रिक भागीदारी: बहुजन समुदायों की उपेक्षा लोकतंत्र में उनकी भागीदारी को कमजोर करती है, जो GS-4 (नैतिकता और समावेशी शासन) के लिए प्रासंगिक है।

निष्कर्ष

भारतीय लोकतंत्र के समक्ष आज सबसे बड़ी चुनौती यह तय करना है कि क्या हम फुले और आंबेडकर जैसे नायकों की विरासत को केवल प्रतीकों और स्मारकों तक सीमित रखेंगे, या उनके विचारों की क्रांतिकारी चुनौती को स्वीकार करेंगे। यह केवल इतिहास के साथ न्याय का प्रश्न नहीं है, बल्कि हमारे लोकतंत्र के भविष्य का भी सवाल है। UPSC की तैयारी के संदर्भ में, यह मुद्दा सामाजिक न्याय, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और संवैधानिक मूल्यों के प्रति गहरी समझ विकसित करने की आवश्यकता को रेखांकित करता है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारी सामूहिक चुप्पी बहुजन नायकों के संघर्षों को और अधिक अदृश्य न बनाए।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और सामाजिक न्याय, बहुजन राजनीति, और संवैधानिक मूल्यों पर लिखते हैं।)

3-भारत के सबसे लंबे रेल टनल का निर्माण पूरा: चुनौतियों के बीच एक ऐतिहासिक उपलब्धि

26 अप्रैल, 2025 को लार्सन एंड टुब्रो लिमिटेड (एलएंडटी) ने घोषणा की कि उत्तराखंड के देवप्रयाग और जनासू के बीच भारत के सबसे लंबे रेल टनल का निर्माण कार्य पूरा हो गया है। इस महत्वाकांक्षी परियोजना को कई गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसमें ऐसे क्षण भी आए जब ऐसा लगा कि टनल ढह सकता है और पूरी परियोजना खतरे में पड़ सकती है। फिर भी, दृढ़ संकल्प और तकनीकी विशेषज्ञता के बल पर इस ऐतिहासिक उपलब्धि को हासिल किया गया।

परियोजना का महत्व

यह टनल, जो ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना का हिस्सा है, उत्तराखंड के दुर्गम हिमालयी क्षेत्र में रेल संपर्क को मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। लगभग 15.1 किलोमीटर लंबा यह टनल भारत का सबसे लंबा रेल टनल है और यह क्षेत्र में यातायात, पर्यटन और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। यह परियोजना चारधाम यात्रा को और सुगम बनाने के साथ-साथ स्थानीय लोगों के लिए रोजगार और बुनियादी ढांचे के अवसर भी प्रदान करेगी।

निर्माण के दौरान चुनौतियां

एलएंडटी के अनुसार, इस टनल के निर्माण में कई जटिल चुनौतियों का सामना करना पड़ा। हिमालय की भूगर्भीय संरचना अपने आप में एक बड़ी बाधा थी। अस्थिर चट्टानें, भूजल का रिसाव, और भूकंपीय गतिविधियों का जोखिम इस परियोजना को और जटिल बनाता था। कुछ मौकों पर, निर्माण के दौरान चट्टानों के ढहने का खतरा इतना बढ़ गया कि पूरी परियोजना पर संकट मंडराने लगा। इसके अलावा, क्षेत्र की कठिन जलवायु और दुर्गम इलाकों ने लॉजिस्टिक्स और मशीनरी की आवाजाही को और मुश्किल बना दिया।
एलएंडटी ने बताया कि इन चुनौतियों से निपटने के लिए अत्याधुनिक तकनीकों का उपयोग किया गया। न्यू ऑस्ट्रियन टनलिंग मेथड (एनएटीएम) और अन्य उन्नत इंजीनियरिंग तकनीकों के साथ-साथ अनुभवी इंजीनियरों और श्रमिकों की मेहनत ने इस परियोजना को सफल बनाया। सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए निरंतर निगरानी और त्वरित निर्णय लेने की आवश्यकता थी, ताकि किसी भी संभावित दुर्घटना को रोका जा सके।

तकनीकी और मानवीय योगदान

इस टनल के निर्माण में हजारों इंजीनियरों, तकनीशियनों और श्रमिकों ने दिन-रात मेहनत की। परियोजना की सफलता में उनकी मेहनत और समर्पण का बड़ा योगदान है। इसके अलावा, स्थानीय समुदायों ने भी परियोजना को समर्थन प्रदान किया, जिससे निर्माण कार्य सुचारू रूप से चल सका। इस परियोजना ने न केवल तकनीकी दक्षता का प्रदर्शन किया, बल्कि सामूहिक प्रयास और दृढ़ता का भी उदाहरण पेश किया।

क्षेत्रीय और राष्ट्रीय प्रभाव

इस टनल के पूरा होने से उत्तराखंड में रेल कनेक्टिविटी में क्रांतिकारी बदलाव आएगा। यह टनल ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो हिमालयी क्षेत्रों को देश के अन्य हिस्सों से जोड़ेगा। इससे न केवल तीर्थयात्रियों को चारधाम यात्रा में सुविधा होगी, बल्कि स्थानीय व्यापार और पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा। इसके अलावा, यह परियोजना सामरिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह सीमावर्ती क्षेत्रों में रेल नेटवर्क को मजबूत करेगी।

भविष्य की संभावनाएं

इस टनल के निर्माण ने भारत की बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में एक नया मानक स्थापित किया है। यह परियोजना यह दर्शाती है कि जटिल भौगोलिक और पर्यावरणीय चुनौतियों के बावजूद, उचित योजना और तकनीकी नवाचार के साथ बड़े लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं। भविष्य में, इस तरह की परियोजनाएं भारत के अन्य दुर्गम क्षेत्रों में भी कनेक्टिविटी और विकास को बढ़ावा दे सकती हैं।

निष्कर्ष

देवप्रयाग और जनासू के बीच भारत के सबसे लंबे रेल टनल का निर्माण पूरा होना न केवल एक इंजीनियरिंग उपलब्धि है, बल्कि भारत के दृढ़ संकल्प और तकनीकी क्षमता का प्रतीक भी है। इस परियोजना ने न केवल उत्तराखंड के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए एक नई राह खोली है। यह टनल न केवल लोगों को जोड़ेगा, बल्कि विकास, समृद्धि और एकता के नए द्वार भी खोलेगा। लार्सन एंड टुब्रो और इस परियोजना से जुड़े सभी लोगों की यह उपलब्धि आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनेगी।



4-संपादकीय: गरीबी उन्मूलन की एक शांत लेकिन महत्वपूर्ण प्रगति

विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट, जिसमें यह बताया गया है कि 2011-12 से 2022-23 के बीच भारत ने 17.1 करोड़ लोगों को अत्यधिक गरीबी से बाहर निकाला, देश के विकास मार्ग पर एक महत्वपूर्ण पड़ाव को दर्शाती है। अत्यधिक गरीबी दर का 16.2% से घटकर केवल 2.3% पर आ जाना न केवल प्रशंसनीय है, बल्कि यह भारत में हो रहे गहरे संरचनात्मक परिवर्तनों का प्रमाण भी है।

ग्रामीण भारत, जो लंबे समय तक देश की गरीबी का मुख्य केंद्र रहा है, ने अत्यधिक गरीबी में 18.4% से गिरावट कर 2.8% तक की कमी देखी है। वहीं, शहरी क्षेत्रों में भी गरीबी दर 10.7% से घटकर 1.1% रह गई है। ये आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि वित्तीय समावेशन, लक्षित कल्याणकारी योजनाओं और आर्थिक विकास ने वंचित समुदायों तक पहुंच बनाने में निर्णायक भूमिका निभाई है।

इस प्रगति के पीछे प्रधानमंत्री आवास योजना, मनरेगा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) का विस्तार और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (DBT) प्रणाली जैसे कार्यक्रमों की प्रभावशीलता को प्रमुख कारक माना जा सकता है। जन धन योजना के माध्यम से वित्तीय समावेशन और स्वास्थ्य व शिक्षा तक बेहतर पहुँच ने भी गरीबी घटाने में योगदान दिया है।

फिर भी, इस उपलब्धि के साथ संतुलित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। अत्यधिक गरीबी में गिरावट भले ही सराहनीय हो, लेकिन सापेक्ष गरीबी (relative poverty) और आजीविका की नाजुकता जैसी चुनौतियाँ अभी भी बनी हुई हैं। कोविड-19 महामारी जैसी आर्थिक आपदाओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि गरीबी रेखा के ऊपर उठे अनेक लोग अभी भी असुरक्षित हैं और किसी भी संकट से पुनः निर्धनता में धकेले जा सकते हैं।

इसके अतिरिक्त, रोजगार की गुणवत्ता, पोषण स्तर, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक सार्वभौमिक पहुँच जैसे मुद्दों में अभी भी क्षेत्रीय और सामाजिक असमानताएँ मौजूद हैं। यदि इन बहुआयामी समस्याओं का समाधान नहीं किया गया, तो गरीबी उन्मूलन की यह सफलता आंशिक और अस्थायी सिद्ध हो सकती है।

भारत यदि आने वाले दशकों में एक विकसित राष्ट्र बनने का लक्ष्य रखता है, तो उसे केवल आंकड़ों में गरीबी घटाने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसे एक मजबूत, न्यायसंगत और समावेशी समाज के निर्माण पर भी ध्यान केंद्रित करना होगा। मानव पूंजी में निवेश, क्षेत्रीय संतुलन और मजबूत सामाजिक सुरक्षा प्रणाली इस दिशा में अनिवार्य हैं।

अत्यधिक गरीबी के खिलाफ यह प्रगति निश्चित रूप से सराहना योग्य है। फिर भी, न्यायपूर्ण और टिकाऊ भारत की यात्रा अभी अधूरी है।




5-आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक एकजुटता की आवश्यकता

22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुआ आतंकी हमला न केवल भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक गंभीर चुनौती है, बल्कि वैश्विक शांति व्यवस्था पर भी गहरे प्रश्नचिह्न अंकित करता है। इस घटना की संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) द्वारा की गई कड़ी निंदा स्वागतयोग्य है, किंतु इससे आगे बढ़कर आतंकवाद के प्रति एक ठोस और सुसंगत वैश्विक रणनीति की आवश्यकता स्पष्ट हो गई है।

यूएनएससी का यह वक्तव्य, जिसमें दोषियों को न्याय के कटघरे में लाने की बात कही गई है, सिद्धांततः सटीक है, किंतु व्यावहारिकता में इसके क्रियान्वयन की राह चुनौतियों से भरी है। विडंबना यह है कि पाकिस्तान, जिस पर आतंकवादी नेटवर्कों को शरण देने के गंभीर आरोप हैं, स्वयं इस समय यूएनएससी का अस्थायी सदस्य है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या वैश्विक संस्थाएं अपने निर्णयों में सचमुच निष्पक्ष और प्रभावी हो सकेंगी?

भारत लंबे समय से यह रेखांकित करता आया है कि आतंकवाद का कोई धर्म, कोई राष्ट्रीयता नहीं होती, और इसका किसी भी प्रकार से महिमामंडन या तर्कसंगत ठहराया जाना वैश्विक सुरक्षा के लिए आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। पहलगाम हमला इस कटु यथार्थ की एक और भयावह अभिव्यक्ति है।

आतंकवाद का राजनीतिकरण: एक बड़ी चुनौती

दुर्भाग्यवश, वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष अक्सर भू-राजनीतिक हितों का शिकार बन जाता है। कुछ देश आतंकवादी संगठनों को रणनीतिक उपकरण की भांति प्रयोग करते हैं, जबकि कुछ राष्ट्र अपने भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को घेरने के प्रयास में इस चुनौती को गंभीरता से नहीं लेते। जब तक आतंकवाद को 'अच्छा' और 'बुरा' कहकर विभाजित किया जाता रहेगा, तब तक इस वैश्विक संकट का कोई स्थायी समाधान संभव नहीं है।

भारत की भूमिका

भारत ने समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आतंकवाद के विरुद्ध एक व्यापक सम्मेलन (Comprehensive Convention on International Terrorism - CCIT) की आवश्यकता पर बल दिया है, किंतु दुर्भाग्यवश, अब तक व्यापक सहमति नहीं बन पाई है। पहलगाम जैसे हमले भारत को और भी दृढ़ संकल्पित बनाते हैं कि वह आतंकवाद के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय समर्थन को संगठित करे और दोषी देशों को वैश्विक मंचों पर अलग-थलग करे।

आगे का मार्ग

यूएनएससी का वक्तव्य एक सकारात्मक संकेत अवश्य है, किंतु वक्तव्यों से अधिक महत्वपूर्ण है ठोस कार्रवाई। वैश्विक समुदाय को यह सुनिश्चित करना होगा कि आतंकवाद को प्रायोजित करने वाले किसी भी राष्ट्र को दंडमुक्ति न मिले। इसके लिए वित्तीय प्रवाह पर रोक, हथियारों की आपूर्ति बंद करना और राजनीतिक दबाव जैसे ठोस उपाय अपनाने होंगे।

इसके अतिरिक्त, संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को आतंकवाद के विरुद्ध त्वरित और कठोर कार्रवाई के लिए एक स्पष्ट, पारदर्शी और अनुकूल तंत्र विकसित करना चाहिए। केवल तब ही पहलगाम जैसी त्रासदियों की पुनरावृत्ति को रोका जा सकेगा।

निष्कर्षतः, पहलगाम हमला हमें यह स्मरण कराता है कि आतंकवाद आज भी वैश्विक समुदाय के समक्ष सबसे बड़ी और जटिल चुनौतियों में से एक है। यदि वैश्विक नेतृत्व इस अवसर का उपयोग आतंकवाद के विरुद्ध सच्ची एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए नहीं करता, तो आने वाला समय और भी अधिक अनिश्चित और असुरक्षित हो सकता है।


 मुख्य परीक्षा (Mains) हेतु संभावित प्रश्न:

GS Paper 2 (Governance, International Relations, Polity)

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की आतंकवाद के प्रति भूमिका की समीक्षा कीजिए। क्या इसके वर्तमान ढांचे में आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों में प्रभावशीलता है?

"आतंकवाद वैश्विक शांति के लिए सबसे गंभीर चुनौती बन गया है।" इस कथन के संदर्भ में भारत के दृष्टिकोण से अंतरराष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता पर चर्चा कीजिए।

पहलगाम आतंकी हमले के आलोक में भारत के आतंकवाद विरोधी कूटनीतिक प्रयासों का मूल्यांकन कीजिए।

आतंकवाद के वित्तपोषण और प्रायोजन को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कौन-कौन से कदम उठाए गए हैं? उनकी सीमाओं और प्रभावशीलता का विश्लेषण कीजिए।


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