अनुच्छेद 200 पर नई व्याख्या – विधेयकों पर राज्यपाल की देरी असंवैधानिक
भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती इसकी विविधता और शक्ति के बंटवारे में निहित है। हमारे देश का संविधान केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन का ऐसा ढांचा प्रस्तुत करता है, जो विभिन्न स्तरों पर सत्ता के दुरुपयोग से बचाव करता है। लेकिन जब इसी संरचना के भीतर कोई संवैधानिक पदाधिकारी अपनी सीमाओं को लांघता है, तो सवाल उठना लाज़मी है।
हाल ही में तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल के मामले में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आया, जिसने एक बार फिर भारतीय संघवाद को लेकर गहरी बहस छेड़ दी है। कोर्ट ने साफ कहा कि राज्यपाल विधानसभा द्वारा पुनः पारित विधेयकों को अनिश्चितकाल तक नहीं रोक सकते, और न ही दूसरी बार उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं। यह केवल तमिलनाडु नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए लोकतंत्र की दिशा में एक मजबूत संदेश है।
राज्यपाल: एक संवैधानिक प्रतिनिधि या राजनीतिक एजेंट?
जब संविधान बना था, तब राज्यपाल को केंद्र और राज्य के बीच एक संविधाननिष्ठ सेतु माना गया था। लेकिन वर्षों में कई बार देखा गया कि यह पद राजनीतिक हस्तक्षेप का माध्यम बनता गया। उदाहरण के लिए, अरुणाचल प्रदेश (2016) और महाराष्ट्र (2019) जैसी घटनाएँ राज्यपाल की भूमिका को लेकर सवाल खड़े करती हैं।
तमिलनाडु के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ। राज्य सरकार ने 10 विधेयक पारित किए, जिन्हें राज्यपाल ने लौटा दिया। जब विधानसभा ने उन्हें दोबारा पारित कर भेजा, तो राज्यपाल ने उन्हें राष्ट्रपति के विचारार्थ भेज दिया। यह कार्यवाही न केवल संवैधानिक प्रक्रिया के विरुद्ध थी, बल्कि एक तरह से राज्य की नीतियों को रोकने की कोशिश भी।
सुप्रीम कोर्ट का संदेश: लोकतंत्र से बड़ा कुछ नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में जो कहा, वह आने वाले वर्षों में राज्यपाल की भूमिका को लेकर एक मिसाल बनेगा। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल कोई वैकल्पिक सत्ता केंद्र नहीं हैं, बल्कि एक औपचारिक संवैधानिक प्रतिनिधि हैं जो मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करते हैं। दोबारा पारित विधेयकों को स्वीकृति देना उनका कर्तव्य है, न कि पसंद का विषय।
इस फैसले ने संविधान की आत्मा को पुनः जीवंत किया है। यह निर्णय न केवल विधायी प्रक्रिया को मजबूत करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि राज्यपाल की भूमिका स्पष्ट, सीमित और जवाबदेह हो।
क्या बदलाव जरूरी हैं? बिल्कुल।
संविधान के अनुच्छेद 200 और 163 राज्यपाल की शक्तियों और कर्तव्यों को परिभाषित करते हैं, लेकिन व्यवहार में उनके दुरुपयोग की संभावनाएँ बनी रहती हैं। इसलिए सुधार अब अपरिहार्य हो गए हैं।
सरकारिया आयोग (1988) और पंची आयोग (2010) दोनों ने सुझाव दिए थे कि राज्यपाल की नियुक्ति में राज्य सरकार की राय ली जानी चाहिए और उनकी राजनीतिक तटस्थता सुनिश्चित की जानी चाहिए। दुर्भाग्यवश, इन सुझावों पर अब तक पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है।
निष्कर्ष: संविधान का पालन ही लोकतंत्र की असली परीक्षा है
तमिलनाडु केस केवल एक कानूनी लड़ाई नहीं थी, यह एक संवैधानिक सिद्धांत की लड़ाई थी—जहाँ सवाल यह था कि क्या लोकतांत्रिक संस्थाएँ वास्तव में स्वतंत्र हैं या नहीं। सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस दिशा में एक उम्मीद की किरण है।
अब समय आ गया है कि हम राज्यपाल के पद को राजनीति से ऊपर रखें और उसे उसकी मूल संवैधानिक गरिमा लौटाएँ। क्योंकि अंततः, लोकतंत्र तब ही जीवित रहेगा जब उसकी संस्थाएँ संविधान के दायरे में रहकर काम करेंगी।
UPSC GS Paper 2 के लिए संभावित प्रश्न, जो राज्यपाल की भूमिका और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से जुड़े हैं। इन्हें विश्लेषणात्मक, संवैधानिक और समसामयिक दृष्टिकोण से तैयार किया गया है:
संभावित प्रश्न (GS Paper 2 – UPSC CSE)
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"सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्णय भारतीय संघवाद को कैसे सुदृढ़ करता है? तमिलनाडु मामले के संदर्भ में विश्लेषण करें।"
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"अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की शक्तियाँ क्या हैं? क्या वर्तमान में यह विधायी प्रक्रिया में बाधा बन रही हैं?"
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"राज्यपाल की भूमिका को राजनीतिक तटस्थता की कसौटी पर कैसे परखा जा सकता है? सुधार हेतु सुझाव दें।"
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"संविधान में वर्णित राज्यपाल की भूमिका और व्यवहारिक राजनीति में उनके कार्यों में क्या विरोधाभास हैं? उदाहरण सहित समझाएँ।"
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"न्यायपालिका द्वारा राज्यपाल की संवैधानिक सीमाओं को रेखांकित करना लोकतंत्र के लिए क्यों आवश्यक है?"
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"राज्यपाल और मंत्रिपरिषद के संबंधों की संवैधानिक व्याख्या करें। हाल के घटनाक्रमों के आलोक में इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा करें।"
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"संघवाद और विधायी स्वायत्तता की दृष्टि से राज्यपाल के विवेकाधीन निर्णयों की समीक्षा करें।"
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"सरकारिया आयोग और पंची आयोग की सिफारिशों के आलोक में राज्यपाल की नियुक्ति और कार्यशैली में सुधार की आवश्यकता पर चर्चा करें।"
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