दैनिक समसामयिकी लेख संकलन: 15 अप्रैल 2025
1-आर्थिक अपराध और प्रत्यर्पण नीति: न्याय की वैश्विक लड़ाई में भारत की चुनौती
भूमिका
आर्थिक अपराध: एक संरचनात्मक विफलता
प्रत्यर्पण प्रक्रिया की जटिलताएँ
भारत की कानूनी प्रतिक्रिया: कितनी प्रभावी?
अंतरराष्ट्रीय सहयोग की भूमिका
आर्थिक अपराध वैश्विक स्तर पर संचालित होते हैं और इनसे निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग अपरिहार्य है। भारत ने कई देशों के साथ प्रत्यर्पण संधियाँ की हैं, लेकिन कई बार ये संधियाँ राजनीतिक इच्छाशक्ति और कानूनी प्रक्रियाओं के कारण निष्क्रिय साबित होती हैं। चोकसी की गिरफ्तारी भारत के लिए एक कूटनीतिक जीत हो सकती है, यदि उसे प्रत्यर्पण करके भारत लाया जाता है।
न्याय, जवाबदेही और नीति की दिशा
निष्कर्ष
नीचे मेहुल चोकसी की गिरफ्तारी और उससे संबंधित विषयों पर आधारित कुछ संभावित UPSC Mains प्रश्न दिए गए हैं, जो GS Paper 2, GS Paper 3, और निबंध के दृष्टिकोण से उपयोगी हो सकते हैं:
GS Paper 2 (Governance, International Relations, Polity)
- "प्रत्यर्पण की प्रक्रिया में भारत को किस प्रकार की विधिक एवं कूटनीतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?" मेहुल चोकसी के संदर्भ में चर्चा कीजिए।
- "भगोड़े आर्थिक अपराधियों के विरुद्ध भारत की कानूनी एवं संस्थागत प्रतिक्रिया कितनी प्रभावी रही है?" उपयुक्त उदाहरणों सहित विश्लेषण करें।
- "अंतरराष्ट्रीय सहयोग और प्रत्यर्पण संधियाँ आर्थिक अपराधों की रोकथाम में कितनी सहायक हैं?" भारत के हालिया प्रयासों के संदर्भ में चर्चा करें।
GS Paper 3 (Internal Security, Economic Issues)
- "PNB घोटाले जैसे आर्थिक अपराध भारत की बैंकिंग प्रणाली की किन कमजोरियों को उजागर करते हैं?" सुझाव सहित चर्चा करें।
- "भगोड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम, 2018 के मुख्य प्रावधान और इसकी प्रभावशीलता का मूल्यांकन कीजिए।"
- **"क्या आर्थिक अपराध आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बन सकते हैं?" मेहुल चोकसी और नीरव मोदी मामलों के संदर्भ में उत्तर दीजिए।
निबंध (Essay Paper)
- "आर्थिक अपराध और नैतिक पतन: वैश्विक पूंजीवाद के युग में न्याय की चुनौतियाँ"
- "एक राष्ट्र की प्रतिष्ठा और उसके नागरिकों की जवाबदेही – भगोड़े आर्थिक अपराधियों का मामला"
2-पारंपरिक बीजों की पुनर्स्थापना — सतत कृषि और खाद्य संप्रभुता की ओर एक निर्णायक कदम
भारत की कृषि व्यवस्था एक परिवर्तनशील दौर से गुजर रही है। हरित क्रांति के बाद हुए कृषि आधुनिकीकरण ने जहां खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की, वहीं हाइब्रिड बीजों और रासायनिक इनपुट्स पर बढ़ती निर्भरता ने पारंपरिक कृषि प्रणाली और देशज बीजों को हाशिये पर धकेल दिया। ऐसे समय में पारंपरिक बीजों की पुनर्स्थापना और बीज महोत्सवों का आयोजन न केवल कृषि की आत्मनिर्भरता का प्रतीक बन रहा है, बल्कि जलवायु परिवर्तन की चुनौती के बीच एक स्थायी समाधान के रूप में उभर रहा है।
पारंपरिक बीजों का महत्व और वर्तमान प्रासंगिकता
पारंपरिक बीजों में स्थानीय जलवायु, मिट्टी और कीटों के प्रति स्वाभाविक सहनशीलता होती है। ये बीज न केवल कम रासायनिक इनपुट्स में उगाए जा सकते हैं, बल्कि इनके उत्पादों का स्वाद, पोषण और औषधीय गुण भी अधिक होते हैं। इनकी बहुलता कृषि जैव विविधता को बनाए रखने में मदद करती है, जो किसी भी कृषि प्रणाली की स्थिरता के लिए आवश्यक है।
आज, जब जलवायु परिवर्तन, मृदा अपरदन, और भूमि की उर्वरता में गिरावट जैसी चुनौतियाँ सामने हैं, पारंपरिक बीजों की ओर लौटना एक विवेकपूर्ण विकल्प बन गया है। यही कारण है कि पश्चिम बंगाल, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में बीज उत्सवों का आयोजन बढ़ रहा है, जहाँ किसान न केवल बीजों का आदान-प्रदान करते हैं, बल्कि सामूहिक कृषि ज्ञान का पुनर्संवर्धन भी करते हैं।
नीतिगत पहल और चुनौतियाँ
भारत सरकार ने भी हाल के वर्षों में पारंपरिक बीजों को बढ़ावा देने की दिशा में कई पहलें की हैं। भारतीय बीज सहकारी समिति (BBSSL) द्वारा पारंपरिक किस्मों को बढ़ावा देना, राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन के अंतर्गत जैविक कृषि को समर्थन देना, और बीज बैंक स्थापित करना – ये सभी कदम स्वागतयोग्य हैं।
हालांकि, नीतियों के क्रियान्वयन में सामुदायिक भागीदारी की कमी, बीज प्रमाणन प्रणाली की जटिलता, और बाजार तक पहुँच की बाधाएं पारंपरिक बीजों के विस्तार में प्रमुख अवरोध हैं। इसके अतिरिक्त, बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों के दबाव में देशी बीजों की उपेक्षा एक गंभीर चिंता का विषय है।
रास्ता आगे का: स्थानीय समाधान, वैश्विक सोच
पारंपरिक बीजों की पुनर्स्थापना खाद्य संप्रभुता, किसानों की आत्मनिर्भरता, और सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) की दिशा में एक निर्णायक कदम हो सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि:
- स्थानीय बीज संरक्षण समूहों को कानूनी मान्यता और वित्तीय सहायता दी जाए,
- कृषि पाठ्यक्रमों में देशज ज्ञान को शामिल किया जाए,
- बीज महोत्सवों और आदान-प्रदान कार्यक्रमों को संस्थागत स्वरूप प्रदान किया जाए,
- और किसानों को सीधे बाज़ार और उपभोक्ताओं से जोड़ने वाले प्लेटफॉर्म विकसित किए जाएं।
निष्कर्ष
पारंपरिक बीज केवल कृषि का अतीत नहीं हैं, बल्कि वे भविष्य की टिकाऊ खेती की नींव भी हैं। इन बीजों का संरक्षण और प्रचार केवल एक तकनीकी या वैज्ञानिक कार्य नहीं, बल्कि यह एक सांस्कृतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय आंदोलन है। यदि नीति-निर्माता, किसान समुदाय और उपभोक्ता मिलकर इस दिशा में कार्य करें, तो भारत एक बार फिर 'बीज स्वराज' की ओर अग्रसर हो सकता है — एक ऐसा भविष्य जहाँ किसान बीजों का स्वामी होगा, न कि उपभोक्ता मात्र।
यह विषय UPSC GS Paper 3 (कृषि, पर्यावरण, जैव विविधता) और GS Paper 2 (नीतिगत पहल) दोनों से संबंधित है। नीचे संभावित प्रश्न दिए जा रहे हैं:
UPSC GS Paper 3 – कृषि और पर्यावरण
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“पारंपरिक बीज न केवल जैव विविधता के संवर्धन का माध्यम हैं, बल्कि जलवायु-सहिष्णु कृषि की कुंजी भी हैं।” इस कथन के आलोक में पारंपरिक बीजों की उपयोगिता पर चर्चा कीजिए।
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पारंपरिक बीज उत्सव (Seed Festival) जैसे आयोजनों की कृषि जैव विविधता और किसानों की आत्मनिर्भरता में भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
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भारत में हाइब्रिड बीजों की बढ़ती निर्भरता के संदर्भ में पारंपरिक बीजों की पुनर्स्थापना से जुड़े अवसरों और चुनौतियों का विश्लेषण कीजिए।
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जलवायु परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में पारंपरिक बीजों की भूमिका का आकलन कीजिए।
UPSC GS Paper 2 – शासन और नीति
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‘भारत में कृषि नीति को पारंपरिक बीज संरक्षण और जैविक खेती की दिशा में पुनर्रचना की आवश्यकता है।’ तर्क सहित विश्लेषण कीजिए।
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पारंपरिक बीजों के संरक्षण हेतु सरकार द्वारा की जा रही पहलों और उनकी प्रभावशीलता की विवेचना कीजिए।
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सामुदायिक भागीदारी आधारित बीज संरक्षण मॉडल भारत में कृषि सुधारों के लिए कैसे लाभदायक हो सकते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
3-BIOCOM कार्यक्रम: सतत आजीविका और जैवविविधता संरक्षण का अभिनव समन्वय
मैडागास्कर का मोंटेन दे फ्रांसे रिज़र्व अपने अनूठे पारिस्थितिक तंत्र और जैवविविधता के लिए जाना जाता है, किंतु मानवीय दबाव, अवैध लकड़ी कटाई और बेरोजगारी जैसे कारकों ने इस क्षेत्र की पारिस्थितिकीय स्थिरता को खतरे में डाल दिया है। ऐसे संकटपूर्ण समय में UNESCO द्वारा आरंभ किया गया BIOCOM (Biodiversity and Community) कार्यक्रम एक व्यावहारिक और प्रेरणादायक समाधान के रूप में उभरा है, जो पर्यावरणीय संरक्षण और सामुदायिक सशक्तिकरण को एक सूत्र में पिरोता है।
BIOCOM: पर्यावरणीय संरक्षण और युवाओं का सशक्तिकरण
BIOCOM कार्यक्रम का मूल उद्देश्य जैवविविधता से समृद्ध क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों, विशेषकर युवाओं को वैकल्पिक और हरित आजीविका के साधनों से जोड़ना है। कार्यक्रम के अंतर्गत युवाओं को व्यावसायिक प्रशिक्षण—जैसे हरित कृषि, इको-टूरिज्म, पारंपरिक कारीगरी, और पर्यावरणीय शिक्षा—प्रदान किया जाता है। इससे एक ओर उन्हें आत्मनिर्भर बनने का अवसर मिलता है, वहीं दूसरी ओर यह पारिस्थितिक तंत्र पर निर्भरता और दबाव को कम करता है।
स्थानीय भागीदारी: संरक्षण का टिकाऊ मॉडल
सामुदायिक भागीदारी के बिना संरक्षण कार्यक्रमों की सफलता अधूरी रहती है। BIOCOM इस सिद्धांत को व्यवहार में उतारता है। जब स्थानीय युवा स्वयं पर्यावरण रक्षकों की भूमिका में आते हैं, तो संरक्षण केवल एक परियोजना नहीं बल्कि एक जीवनशैली बन जाती है। मोंटेन दे फ्रांसे जैसे क्षेत्रों में यह मानसिकता परिवर्तन स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
मानवीय दबाव और जैवविविधता संकट का समाधान
जैवविविधता हॉटस्पॉट क्षेत्रों में अत्यधिक मानवीय गतिविधियाँ—जैसे वनों की कटाई, शिकार, और भूमि क्षरण—इनकी पारिस्थितिकी को प्रभावित करती हैं। BIOCOM जैसे कार्यक्रम इन क्षेत्रों में वैकल्पिक आजीविका और पर्यावरणीय शिक्षा के माध्यम से इन गतिविधियों को सीमित करते हैं। यह दृष्टिकोण सतत विकास के ‘लोगों, पृथ्वी और समृद्धि’ (People, Planet, Prosperity) जैसे मूल्यों के साथ मेल खाता है।
पर्यावरणीय जागरूकता और सतत भविष्य
BIOCOM केवल आर्थिक सहायता नहीं बल्कि पर्यावरणीय चेतना भी प्रदान करता है। प्रशिक्षित युवा अब न केवल अपने लिए काम करते हैं, बल्कि दूसरों को भी प्रकृति के महत्व को समझाते हैं। यह दीर्घकालिक प्रभाव उस समय और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब हम जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिक असंतुलन की वैश्विक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।
भारत के लिए सबक
भारत में भी अनेक जैवविविधता हॉटस्पॉट जैसे पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर क्षेत्र और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह हैं, जहाँ BIOCOM जैसे मॉडल अपनाकर स्थानीय युवाओं को पर्यावरणीय नेतृत्व में बदला जा सकता है। एकीकृत प्रशिक्षण, सरकारी सहयोग और स्थानीय संस्थाओं की भागीदारी से भारत सतत विकास की दिशा में और मज़बूत कदम उठा सकता है।
निष्कर्ष
UNESCO का BIOCOM कार्यक्रम पर्यावरणीय संरक्षण की चुनौतियों और सामुदायिक समाधान के बीच एक प्रभावी पुल है। यह दर्शाता है कि यदि युवाओं को अवसर, प्रशिक्षण और दिशा दी जाए, तो वे न केवल अपनी आजीविका सुदृढ़ कर सकते हैं, बल्कि प्रकृति के संरक्षक भी बन सकते हैं। जैवविविधता और सतत विकास के क्षेत्र में BIOCOM एक वैश्विक मॉडल बनता जा रहा है—जिससे भारत सहित समूचा विश्व प्रेरणा ले सकता है।
नीचे इस विषय पर आधारित कुछ संभावित प्रश्न दिए गए हैं, जो UPSC, राज्य सेवा परीक्षा, या पर्यावरण-संवंधित निबंध/GS पेपर-3 में पूछे जा सकते हैं:
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) के लिए संभावित प्रश्न:
- BIOCOM कार्यक्रम किस अंतरराष्ट्रीय संस्था से संबंधित है?
- BIOCOM कार्यक्रम का उद्देश्य क्या है?
- मोंटेन दे फ्रांसे रिज़र्व किस देश में स्थित है?
- UNESCO का BIOCOM कार्यक्रम किस प्रकार की आजीविका पर ज़ोर देता है?
मुख्य परीक्षा (Mains) के लिए संभावित प्रश्न:
GS पेपर-3 (पर्यावरण और पारिस्थितिकी)
- UNESCO के BIOCOM कार्यक्रम के संदर्भ में बताइए कि किस प्रकार पर्यावरणीय संरक्षण और सतत आजीविका को एक साथ साधा जा सकता है।
- जैवविविधता हॉटस्पॉट क्षेत्रों में युवाओं के सशक्तिकरण के माध्यम से संरक्षण को कैसे बढ़ावा दिया जा सकता है? BIOCOM कार्यक्रम का उदाहरण देते हुए स्पष्ट कीजिए।
- वन संसाधनों पर बढ़ते मानवीय दबाव को कम करने में सामुदायिक भागीदारी की भूमिका पर चर्चा कीजिए।
- स्थानीय समुदाय आधारित संरक्षण (Community-based Conservation) नीतियों की प्रभावशीलता का आकलन करें। BIOCOM कार्यक्रम के आलोक में विश्लेषण करें।
निबंध (Essay) हेतु संभावित विषय:
- "सतत आजीविका और जैवविविधता संरक्षण: सामंजस्य की नई राहें"
- "स्थानीय युवाओं के माध्यम से पर्यावरणीय पुनरुत्थान"
- "संरक्षण की चुनौतियाँ और सामुदायिक समाधान"
4-जातिगत सर्वेक्षण और ओबीसी आरक्षण: सामाजिक न्याय या राजनीतिक गणित?
कर्नाटक सरकार द्वारा प्रस्तुत जातिगत सर्वेक्षण रिपोर्ट और उसमें अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण बढ़ाकर 51% करने की सिफारिश ने भारत में सामाजिक न्याय की नीति, संवैधानिक सीमाओं और राजनीतिक रणनीति को एक बार फिर बहस के केंद्र में ला दिया है। यह केवल राज्य विशेष का मामला नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति और सामाजिक संरचना के भविष्य को आकार देने वाला निर्णय बन सकता है।
जातिगत सर्वेक्षण: सामाजिक वास्तविकता का प्रतिबिंब?
कर्नाटक में किए गए सामाजिक और शैक्षिक सर्वेक्षण के अनुसार, राज्य की 65% से अधिक जनसंख्या OBC श्रेणी में आती है। यह आंकड़ा पहले के अनुमानों से काफी अधिक है। इस रिपोर्ट के आधार पर राज्य सरकार ने OBC आरक्षण को 32%(SC-17%/ST-7% कुल-56%) से बढ़ाकर 51%(SC-17%/ST-7% कुल-75%) करने की सिफारिश की है। यह प्रयास बिहार द्वारा जारी जातिगत सर्वेक्षण की तर्ज पर है, जो सामाजिक न्याय के पक्ष में डेटा आधारित नीतियों का पक्षधर है।
इससे यह सवाल उठता है — क्या जातिगत जनगणना वास्तव में समावेशिता को बढ़ावा देती है, या यह सामाजिक वर्गों के बीच विभाजन को गहरा करती है? उत्तर दोनों में निहित है। एक ओर यह नीति निर्माताओं को वास्तविक ज़मीनी सच्चाइयों से अवगत कराकर वंचित वर्गों तक नीतियों को पहुँचाने में सहायक हो सकती है, वहीं दूसरी ओर यह पहचान आधारित राजनीति को बल देकर समाज में टकराव की भूमि भी तैयार कर सकती है।
आरक्षण की संवैधानिक सीमा और न्यायिक परिप्रेक्ष्य
भारतीय संविधान में समान अवसर का सिद्धांत निहित है, और आरक्षण व्यवस्था इसका साधन मानी गई है। किंतु सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार (1992) के ऐतिहासिक निर्णय में आरक्षण की सीमा को सामान्यतः 50% तक सीमित किया था, जिससे “योग्यता बनाम सामाजिक न्याय” की बहस को दिशा मिली। ऐसे में कर्नाटक द्वारा प्रस्तावित 75% कुल आरक्षण व्यवस्था सीधे इस न्यायिक निर्देश को चुनौती देता है।
सामाजिक न्याय बनाम राजनीतिक गणना
OBC कोटा बढ़ाने की सिफारिश केवल सामाजिक न्याय की दिशा में उठाया गया कदम नहीं, बल्कि यह एक राजनीतिक समीकरण को साधने की रणनीति भी है। कांग्रेस द्वारा इसे आगामी चुनावों के मद्देनज़र OBC, दलित और अल्पसंख्यक (D-M-A) समीकरण के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। वहीं, विपक्षी दल जैसे भाजपा और JDS इसे "तुष्टिकरण" की राजनीति का नाम दे रहे हैं।
राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और संघीय संरचना पर प्रभाव
राज्यों द्वारा आरक्षण सीमा को 50% से अधिक ले जाने की प्रवृत्ति, जैसे महाराष्ट्र और तमिलनाडु में देखा गया है, संविधान की संघीय भावना पर भी असर डालती है। आरक्षण की नीति, जो एक समय केंद्र सरकार की जिम्मेदारी मानी जाती थी, अब राज्यों द्वारा सामाजिक इंजीनियरिंग का उपकरण बनती जा रही है।
निष्कर्ष: सत्ता का पुनर्वितरण या सामाजिक समरसता?
OBC आरक्षण में वृद्धि का प्रस्ताव केवल आरक्षण के प्रतिशत की बात नहीं है, यह सत्ता और संसाधनों के पुनर्वितरण की प्रक्रिया है। यदि यह कदम पारदर्शिता, डेटा आधारित नीति और सामाजिक संतुलन के सिद्धांत पर आधारित हो, तो यह समावेशी भारत की ओर एक मजबूत कदम हो सकता है। लेकिन यदि यह केवल तात्कालिक राजनीतिक लाभ हेतु हो, तो यह सामाजिक विभाजन को और अधिक बढ़ावा देगा।
समाज को चाहिए कि वह आरक्षण को अधिकार की तरह स्वीकारे, न कि सहूलियत की तरह; और नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे इसे सशक्तिकरण का माध्यम बनाएं, न कि राजनीतिक तंत्र का हथियार।
यह विषय UPSC Mains (GS Paper 2), राज्य सेवा परीक्षाओं, और निबंध पत्र के लिए अत्यंत प्रासंगिक है। इस पर आधारित संभावित प्रश्न निम्नलिखित हो सकते हैं:
UPSC Mains (GS Paper 2) के लिए संभावित प्रश्न:
-
"भारत में आरक्षण नीति के संदर्भ में 50% की सीमा कितनी तार्किक है?"
- उपयुक्त उदाहरणों सहित चर्चा करें।
-
"जातिगत जनगणना सामाजिक न्याय की दिशा में एक आवश्यक कदम है।"
- कर्नाटक और बिहार के हालिया प्रयासों के आलोक में विश्लेषण करें।
-
"राज्यों द्वारा आरक्षण सीमा को 50% से अधिक ले जाने के प्रयास भारतीय संघीय ढांचे पर क्या प्रभाव डालते हैं?"
- संविधान और न्यायपालिका के दृष्टिकोण से विश्लेषण करें।
-
"कर्नाटक में जातिगत सर्वेक्षण और बढ़ा हुआ ओबीसी कोटा राज्य की सामाजिक संरचना और राजनीतिक परिदृश्य को कैसे प्रभावित कर सकता है?"
- विश्लेषणात्मक उत्तर दें।
निबंध लेखन (Essay Paper) के लिए विषय सुझाव:
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"आरक्षण और सामाजिक न्याय: अवसर की समानता या सत्ता का पुनर्वितरण?"
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"जातिगत जनगणना: समावेशिता की ओर एक कदम या विभाजन की ओर?"
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"राजनीति में सामाजिक प्रतिनिधित्व और आरक्षण: अधिकार बनाम राजनीति"
राज्य सेवा परीक्षाओं हेतु संभावित लघु/दीर्घ प्रश्न:
- कर्नाटक जातिगत सर्वेक्षण की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
- ओबीसी कोटा बढ़ाने के पीछे तर्क क्या हैं?
- सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% आरक्षण सीमा की पृष्ठभूमि समझाइए।
- क्या जातिगत सर्वेक्षण सामाजिक समरसता को बढ़ाता है या चुनौतियाँ उत्पन्न करता है?
- कर्नाटक सरकार की ओबीसी नीति का राजनीतिक दृष्टिकोण से मूल्यांकन कीजिए।
5-बचपन बिकता नहीं... बचाया जाता है: सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी और हमारी सामूहिक जिम्मेदारी
हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बच्चों की तस्करी को लेकर एक अहम चेतावनी देते हुए कहा कि “अभिभावकों को अत्यधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है।” न्यायालय ने चिंता व्यक्त की कि संगठित गिरोह बच्चों को यौन शोषण, जबरन श्रम, भीख मंगवाने, छोटे-मोटे अपराधों में लिप्त करने, सशस्त्र संघर्ष, बाल विवाह और नवजात शिशुओं की अंतर-देशीय गोद लेने की आड़ में बिक्री जैसे घिनौने कृत्यों में झोंक रहे हैं।
यह टिप्पणी न केवल एक न्यायिक आदेश है, बल्कि समाज के प्रति एक गहन नैतिक प्रश्न भी उठाती है: क्या हम, एक लोकतांत्रिक और संवेदनशील राष्ट्र के नागरिक, अपने बच्चों को सुरक्षित भविष्य देने में विफल हो रहे हैं?
भारत में बाल तस्करी: एक जटिल सामाजिक-आपराधिक संकट
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्टों के अनुसार, हर वर्ष हजारों बच्चे लापता होते हैं। इनमें से बड़ी संख्या मानव तस्करों की चपेट में आ जाती है। ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में यह समस्या अधिक विकराल है, जहाँ गरीबी, अशिक्षा और सामाजिक असमानता बाल तस्करी की उर्वर भूमि बनाते हैं।
कानूनी ढांचे की सीमाएं और प्रशासनिक उदासीनता
भारत में जुवेनाइल जस्टिस एक्ट, पॉक्सो एक्ट, और मानव तस्करी विरोधी कानूनों की उपस्थिति के बावजूद कार्यान्वयन की कमजोरियाँ, संसाधनों की कमी और भ्रष्टाचार के चलते अपराधियों को सजा दिलाना चुनौतीपूर्ण बना रहता है। बाल कल्याण समितियाँ और चाइल्डलाइन जैसी संस्थाएं अक्सर संसाधनविहीन और सीमित पहुँच वाली होती हैं।
सामाजिक चेतना और पारिवारिक सतर्कता की भूमिका
सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी का सार यह है कि केवल सरकार नहीं, बल्कि प्रत्येक अभिभावक और नागरिक को भी बच्चों की सुरक्षा के प्रति सजग रहना होगा। डिजिटल माध्यमों से बढ़ते शोषण और बहकावे में आने वाले किशोरों की पहचान, उनके व्यवहार में बदलाव, और उनके संपर्कों पर निगरानी अनिवार्य हो गई है।
नैतिक और प्रशासनिक उत्तरदायित्व
यह एक नैतिक विफलता भी है जब समाज कमजोर और मासूमों की रक्षा करने में चूक जाता है। प्रशासन को संवेदनशील, जवाबदेह और तीव्र कार्रवाई करने वाला बनाना होगा। लोक सेवकों और पुलिस बल को प्रशिक्षण के साथ-साथ संवेदनशीलता की दृष्टि भी देनी होगी।
समाधान की दिशा में कदम
- कड़े और प्रभावी कानूनों का क्रियान्वयन, जिसमें त्वरित न्याय और दोषियों को कठोर सजा मिले।
- बाल संरक्षण तंत्र को सशक्त बनाना, विशेषकर ज़मीनी स्तर पर कार्यरत समितियों और स्वयंसेवी संस्थाओं को सहयोग देना।
- जनजागरण और शिक्षा, ताकि समाज बाल अधिकारों के प्रति सजग हो और बाल तस्करी की प्रारंभिक चेतावनियों को पहचान सके।
- अंतर्राष्ट्रीय गोद लेने की प्रक्रिया में पारदर्शिता, जिससे नवजात शिशुओं की अवैध बिक्री रोकी जा सके।
निष्कर्ष
“बचपन बिकता नहीं है, उसे बचाया जाता है।” यह केवल एक भावनात्मक अपील नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चेतना का आह्वान है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी हमें यह स्मरण कराती है कि यदि हम बच्चों को बचाने में विफल होते हैं, तो हम केवल एक पीढ़ी ही नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र के भविष्य को खो देते हैं। यह समय है कि हम अपने कर्तव्यों के प्रति सजग हों – कानून, नैतिकता और सामाजिक उत्तरदायित्व के स्तर पर।
यह विषय UPSC, राज्य सेवा आयोग, निबंध, तथा सामाजिक मुद्दों से जुड़े प्रश्नों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इससे जुड़े कुछ संभावित प्रश्न निम्नलिखित हैं:
GS Paper II (Governance, Polity & Social Justice)
- "बच्चों की तस्करी से संबंधित सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी के आलोक में भारत में बाल संरक्षण तंत्र की समीक्षा कीजिए।"
- "बाल तस्करी के विरुद्ध भारत में मौजूदा कानूनी एवं संस्थागत ढांचे की सीमाओं का मूल्यांकन कीजिए।"
- "सामाजिक जागरूकता और पारिवारिक सतर्कता बच्चों की तस्करी रोकने में किस प्रकार सहायक हो सकते हैं?"
- "‘इंटर-कंट्री एडॉप्शन’ की आड़ में नवजातों की बिक्री – एक बढ़ती हुई समस्या पर विचार कीजिए।"
GS Paper IV (Ethics, Integrity & Aptitude)
- "बाल तस्करी से जुड़ी नैतिक समस्याएं और प्रशासन की भूमिका पर चर्चा कीजिए।"
- "सरकारी अधिकारियों की संवेदनशीलता एवं उत्तरदायित्व बच्चों की सुरक्षा में कैसे मददगार हो सकते हैं?"
Essay (निबंध)
- "बचपन बिकता नहीं है – लेकिन हम क्या कर रहे हैं?"
- "बच्चों की तस्करी: एक सामाजिक अपराध और हमारी सामूहिक विफलता।"
6-गठबंधन राजनीति का बदलता स्वरूप: सत्ता-साझेदारी से संख्या-प्रबंधन तक
भारतीय लोकतंत्र की राजनीतिक यात्रा में गठबंधन सरकारें एक अहम पड़ाव रही हैं, जिनमें विविध विचारधाराओं और क्षेत्रीय आकांक्षाओं को समाहित कर एक समावेशी शासन-प्रणाली विकसित की गई। किंतु हाल के वर्षों में, विशेषकर मोदी 3.0 सरकार के गठन के पश्चात, यह परंपरा संकटग्रस्त प्रतीत होती है। गठबंधन अब विचारधारा आधारित साझेदारी नहीं, बल्कि संख्या-प्रबंधन का उपकरण बनते जा रहे हैं।
गठबंधन का मूलभाव और उसका क्षरण
विचारधारा बनाम सत्ता-व्यवहार
संघवाद पर पड़ता प्रभाव
लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका और गठबंधन की प्रासंगिकता
निष्कर्ष: आगे का मार्ग
(यह लेख UPSC GS Paper 2, निबंध और राज्य सेवा परीक्षाओं के लिए प्रासंगिक है।)
यह लेख UPSC, राज्य सेवा परीक्षा, और समसामयिक राजनीति पर आधारित निबंध या विश्लेषणात्मक उत्तरों के लिए बेहद उपयोगी है। इससे जुड़े कुछ संभावित प्रश्न निम्नलिखित हैं:
मुख्य परीक्षा (GS Paper 2 / निबंध) हेतु संभावित प्रश्न:
- "गठबंधन राजनीति में सत्ता-साझेदारी की परंपरा का क्षरण लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए कितना घातक है?" — विश्लेषण करें।
- "मोदी 3.0 सरकार के गठन ने भारतीय संघवाद की संरचना में कौन-से नए प्रश्न खड़े किए हैं?"— चर्चा कीजिए।
- "गठबंधन राजनीति का उद्देश्य अब साझा शासन से अधिक सत्ता-सुरक्षा बन गया है"— इस कथन पर आलोचनात्मक टिप्पणी करें।
- "भारतीय राजनीति में विचारधारा की जगह अब सत्ता-व्यवहार ने ले ली है।"— समसामयिक उदाहरणों सहित स्पष्ट करें।
- "Coalition governments have increasingly become numerical arrangements rather than ideological alliances." – Elaborate with reference to recent political developments.
- "Discuss the role and relevance of regional parties in coalition governments in the post-2014 political era."
- "Examine the changing nature of Centre-State relations in light of recent coalition dynamics."
- "In the context of Modi 3.0, is the era of true coalition politics over?" – Critically analyze.
दैनिक समसामयिकी : 14 अप्रैल 2025👈
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