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Daily Current Affairs: 27 April 2025

दैनिक समसामयिकी लेख संकलन व विश्लेषण: 27 अप्रैल 2025 1-नये भारत में पितृत्व के अधिकार की पुनर्कल्पना सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार से तलाकशुदा और अविवाहित पुरुषों के सरोगेसी के अधिकार को लेकर मांगा गया जवाब एक महत्वपूर्ण संवैधानिक बहस की शुरुआत का संकेत देता है। महेश्वर एम.वी. द्वारा दायर याचिका केवल व्यक्तिगत आकांक्षा नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज में परिवार, पितृत्व और व्यक्तिगत गरिमा के बदलते मायनों को न्यायिक जांच के दायरे में लाती है। वर्तमान कानूनी परिदृश्य सरोगेसी (नियमन) अधिनियम, 2021 एक नैतिक और कानूनी प्रयास था, जिसका उद्देश्य वाणिज्यिक सरोगेसी के दुरुपयोग को रोकना और मातृत्व के शोषण को समाप्त करना था। परंतु, इस अधिनियम में सरोगेसी का अधिकार केवल विधिवत विवाहित दंपतियों और विधवा या तलाकशुदा महिलाओं तक सीमित किया गया, जबकि तलाकशुदा अथवा अविवाहित पुरुषों को इससे बाहर कर दिया गया। यह प्रावधान न केवल लैंगिक समानता के सिद्धांत के विपरीत है, बल्कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा के अधिकार पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है। संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 ...

UPSC Current Affairs in Hindi : 17 April 2025

 दैनिक समसामयिकी लेख संकलन: 17 अप्रैल 2025

आज के अंक में निम्नलिखित 5 लेखों को सम्मिलित किया गया है।


  1. टाइम मैगज़ीन सूची में भारतीयों की अनुपस्थिति पर वैश्विक मानकों की समीक्षा और भारत की भूमिका पर विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण।

  2. धर्म और भाषा के संदर्भ में भारतीय समाज में समरसता बनाम संकीर्णता पर गहराई से विचार करता विश्लेषणात्मक लेख।

  3. पंचतंत्र की नीति से प्रेरित एशियाई भू-राजनीति की दिशा—शक्ति नहीं, समझ और संवाद की आवश्यकता पर केंद्रित विचार।

  4. विवाह की स्वतंत्रता, न्यायिक मर्यादा और सामाजिक संतुलन के बीच संतुलन की खोज करता यह लेख संवैधानिक विमर्श प्रस्तुत करता है।

  5. वक्फ अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों से न्यायिक संतुलन और सामाजिक सद्भाव के नए संदर्भों की विवेचना करता संपादकीय लेख।


1-टाइम मैगज़ीन की प्रभावशाली व्यक्तियों की सूची में भारतीयों की अनुपस्थिति: वैश्विक मानकों पर पुनर्विचार का समय

परिचय

हर वर्ष की भांति, टाइम मैगज़ीन ने 2025 की अपनी प्रतिष्ठित सूची "100 Most Influential People in the World" प्रकाशित की है। यह सूची विश्वभर के उन व्यक्तियों को मान्यता देती है जिन्होंने सामाजिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक या व्यावसायिक क्षेत्र में असाधारण प्रभाव डाला हो। परंतु इस वर्ष की सूची भारतीय दृष्टिकोण से चिंता जनक है — इसमें एक भी भारतीय नागरिक को स्थान नहीं मिला है।


सूची का स्वरूप: प्रभाव का पश्चिमी परिप्रेक्ष्य

टाइम की यह सूची वैश्विक प्रभाव की पहचान का एक लोकप्रिय मानदंड मानी जाती है। परंतु इसके चयन मानदंडों को लेकर समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं:

  • प्रभाव का परिभाषात्मक अंतर: जहां भारतीय समाज में प्रभाव को सेवा, नवाचार या सामाजिक योगदान के रूप में देखा जाता है, वहीं टाइम जैसी पत्रिकाएँ "वैश्विक दृश्यता", "मीडिया उपस्थिति" और "संस्थागत शक्ति" को प्राथमिकता देती हैं।

  • पश्चिम-केन्द्रित दृष्टिकोण: सूची में इस बार भी प्रमुखता से अमेरिका, यूरोप और कुछ हद तक एशियाई-अमेरिकन नामों का वर्चस्व रहा। इसमें ब्रिटिश गायक एड शीरन, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, और एलन मस्क जैसे चर्चित चेहरे शामिल हैं।

  • भारतीय मूल के लोग, पर भारत से नहीं: सूची में रेशमा केवलेरमणि, जो अमेरिका की एक फार्मा कंपनी की CEO हैं, को शामिल किया गया है। परंतु वे भारत में कार्यरत नहीं हैं, जिससे देश की सीधी प्रतिनिधित्वकारी उपस्थिति शून्य ही मानी जा सकती है।


भारतीय अनुपस्थिति के कारण: कुछ संभावित दृष्टिकोण

  1. वैश्विक मंच पर दृश्यता की कमी
    भारतीय हस्तियों के कार्य देश में प्रभावी होते हैं, परंतु उन्हें विश्व पटल पर प्रभावी रूप से प्रस्तुत नहीं किया जाता।

  2. ब्रांडिंग और संप्रेषण की कमजोरी
    पश्चिमी मीडिया में भारतीय उपलब्धियाँ पर्याप्त स्थान नहीं पा पातीं, जिससे उनकी वैश्विक पहुँच सीमित रह जाती है।

  3. नवाचार बनाम प्रचार
    भारत में अनेक लोग नवाचार और नेतृत्व में अग्रणी हैं, परन्तु उनका प्रचार अपेक्षाकृत कम होता है—जो टाइम जैसी सूचियों में चयन के लिए निर्णायक कारक हो सकता है।


यह केवल एक सूची नहीं, बल्कि वैश्विक मान्यता का प्रतीक है

टाइम की यह सूची केवल आंकड़ों का संग्रह नहीं, बल्कि यह यह तय करती है कि कौन-से व्यक्ति वैश्विक विमर्श को दिशा दे रहे हैं। भारतीय नागरिकों की अनुपस्थिति यह संकेत देती है कि या तो भारत के प्रभावशाली लोग वैश्विक मंच पर अपर्याप्त रूप से प्रस्तुत हो रहे हैं, या फिर वैश्विक संस्थाएँ अब भी भारत को उस नज़र से नहीं देखतीं, जिसकी वह हक़दार है।


निष्कर्ष: आत्ममंथन का अवसर

टाइम मैगज़ीन की यह सूची भारत के लिए आत्मनिरीक्षण का अवसर लेकर आई है। देश को केवल आंतरिक विकास तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि अपने नेताओं, वैज्ञानिकों, कलाकारों और उद्यमियों को वैश्विक मंच पर पहचान दिलाने की रणनीति विकसित करनी चाहिए।

जब तक भारतीय प्रभाव की वैश्विक व्याख्या और प्रस्तुति सशक्त नहीं होगी, तब तक ऐसी सूचियों में भारत की अनुपस्थिति केवल एक संयोग नहीं, एक प्रवृत्ति बनती जाएगी।


2-Supreme Court Declares: Hindi Is Not Just for Hindus, Urdu Not Just for Muslims.

भाषा और धर्म: भारतीय समाज में समरसता बनाम संकीर्णता

भारत जैसे बहुजातीय, बहुभाषी और बहुधार्मिक देश में भाषा और धर्म की भूमिका अत्यंत संवेदनशील और महत्वपूर्ण रही है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए एक अत्यंत सराहनीय और दूरगामी टिप्पणी दी कि "हिंदी को हिंदुओं की भाषा और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानना वास्तविकता से एक दया योग्य विचलन है।" यह टिप्पणी न केवल वर्तमान सामाजिक मानसिकता पर प्रहार है, बल्कि भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप की पुष्टि भी करती है।

भाषा: संस्कृति और संवाद का सेतु

भाषा का धर्म से कोई संबंध नहीं होता; यह तो मात्र संप्रेषण का माध्यम है, विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने का तरीका है। भारत की हजारों वर्षों की सभ्यता ने यह सिखाया है कि भाषाएं लोगों को जोड़ती हैं, अलग नहीं करतीं। हिंदी और उर्दू दोनों ही भारतीय भाषाएँ हैं, जिनका विकास इसी उपमहाद्वीप में हुआ। इन भाषाओं में साहित्य, संगीत, कविता और कला की महान परंपराएँ रही हैं। इन्हें धर्म के चश्मे से देखना, इनकी सांस्कृतिक समृद्धि का अपमान है।

संविधान की दृष्टि: धर्मनिरपेक्षता और समानता

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 29–30 यह स्पष्ट करते हैं कि देश में किसी भी व्यक्ति के साथ भाषा, धर्म, जाति या लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। संविधान यह सुनिश्चित करता है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है जहाँ प्रत्येक भाषा और धर्म को समान सम्मान प्राप्त है। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी संविधान की इसी मूल भावना को बल देती है।

भाषा और राजनीति: एक खतरनाक गठबंधन

राजनीति के क्षेत्र में भाषा को धर्म से जोड़ना अक्सर वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा रहा है। यह प्रवृत्ति समाज में ध्रुवीकरण और वैमनस्य को बढ़ावा देती है। हिंदी और उर्दू को धर्म विशेष से जोड़ने की कोशिशें न केवल ऐतिहासिक तथ्यों से परे हैं, बल्कि यह भारतीय समाज की एकता में विविधता की अवधारणा पर सीधा आघात है।

समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण: बहुलतावाद की रक्षा

भारत का सामाजिक ढांचा बहुलतावादी है। यहां भाषा, धर्म और संस्कृति की अनेक धाराएँ सहअस्तित्व के साथ बहती हैं। यदि भाषा को धर्म से जोड़ा गया तो यह सामाजिक सामंजस्य और समरसता को प्रभावित करेगा। यह हमें उस पहचान की ओर धकेलेगा जो सांप्रदायिकता और संकीर्णता से प्रेरित होती है, जबकि भारतीयता की आत्मा समावेशिता और सहिष्णुता में है।

सुप्रीम कोर्ट की भूमिका: न्यायिक संवेदनशीलता का परिचायक

भारतीय न्यायपालिका, विशेषकर सुप्रीम कोर्ट, समय-समय पर संवैधानिक मूल्यों की रक्षा में निर्णायक भूमिका निभाती रही है। इस टिप्पणी के माध्यम से न्यायालय ने समाज को यह संदेश दिया है कि भाषा व्यक्ति की अभिव्यक्ति का माध्यम है, उसकी धार्मिक पहचान का नहीं। यह चेतावनी उन मानसिकताओं के लिए है जो भाषा को धर्म का मुखौटा पहनाकर समाज में विष घोलने का कार्य करती हैं।

निष्कर्ष: भविष्य की दिशा

भारत को एक समावेशी, प्रगतिशील और एकजुट राष्ट्र के रूप में आगे बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है कि हम भाषा को कभी भी धर्म या राजनीति से न जोड़ें। हिंदी, उर्दू, तमिल, तेलुगु या कोई भी भाषा किसी एक धर्म या समुदाय की नहीं होती—ये सब भारतीयता की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी हमें सामाजिक सद्भाव, संवैधानिक मूल्यों और राष्ट्रीय एकता की ओर ले जाने वाली प्रकाश किरण है।

हमें यह समझना होगा कि "भाषा जोड़ती है, धर्म नहीं बाँधता।" यही सोच भारत को संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठाकर विश्वगुरु की दिशा में ले जाएगी।


यह सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी UPSC की मुख्य परीक्षा (GS Paper 1, GS Paper 2, निबंध) और इंटरव्यू में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, क्योंकि यह भाषाई विविधता, सामाजिक समरसता, धर्मनिरपेक्षता और संवैधानिक मूल्यों से जुड़ा मुद्दा है।
यहाँ UPSC दृष्टिकोण से संभावित प्रश्न वर्गीकृत रूप में दिए जा रहे हैं:


GS Paper 1 (भारतीय समाज):

  1. "भारत में भाषा को धर्म से जोड़ने की प्रवृत्ति सामाजिक समरसता के लिए चुनौती बनती जा रही है।"—इस कथन की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
  2. भारत की भाषाई विविधता में एकता को बनाए रखने के लिए कौन-कौन से संवैधानिक और सामाजिक प्रयास किए गए हैं?
  3. उर्दू और हिंदी को लेकर प्रचलित सामाजिक धारणाएं भारतीय बहुलतावाद को किस प्रकार प्रभावित करती हैं?

GS Paper 2 (संविधान एवं शासन):

  1. भारतीय संविधान भाषा और धर्म को किस प्रकार अलग रखता है? सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
  2. ‘भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम है, न कि धार्मिक पहचान’—इस विचार को संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से जोड़ते हुए समझाइए।
  3. भाषा और धर्म को अलग रखने की आवश्यकता पर भारत के संवैधानिक न्यायालयों की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।

निबंध (Essay Paper):

  1. "भाषा जोड़ती है, धर्म नहीं बाँधता"—एक समसामयिक दृष्टिकोण से विश्लेषणात्मक निबंध लिखिए।
  2. "भारतीयता की पहचान उसकी भाषाई और सांस्कृतिक विविधता में निहित है।"—इस कथन की समाजशास्त्रीय व्याख्या कीजिए।

साक्षात्कार (Interview):

  • यदि आपसे पूछा जाए:
    "आपके अनुसार हिंदी और उर्दू को धर्म से जोड़ना कितना तार्किक है?"
    आप उत्तर दे सकते हैं:
    "मेरे अनुसार यह पूरी तरह से अनुचित और ऐतिहासिक तथ्यों के विपरीत है। दोनों भाषाओं का विकास भारतीय भूमि पर हुआ है और यह विविध सांस्कृतिक परिवेश की अभिव्यक्ति हैं, न कि किसी धर्म विशेष की पहचान। सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी इस दिशा में एक स्वागत योग्य पहल है।"

3-पंचतंत्र की नीति और एशियाई भू-राजनीति: शक्ति नहीं, समझ की परीक्षा

भूमिका

21वीं सदी की अंतरराष्ट्रीय राजनीति में केवल सैन्य या आर्थिक शक्ति ही निर्णायक नहीं रही, अब "बुद्धिमत्ता", "चालाकी" और "रणनीतिक कौशल" की भी परीक्षा होती है। भारत के प्राचीन नीति-ग्रंथ पंचतंत्र की शिक्षाएं आज के वैश्विक परिप्रेक्ष्य में कहीं अधिक प्रासंगिक हो गई हैं। विशेष रूप से चीन जिस प्रकार से दक्षिण एशिया और पूर्वी एशिया में अपनी कूटनीतिक चालें चल रहा है, उसमें पंचतंत्र की नीति ‘विग्रह’—यानी विरोधियों के बीच फूट डालने की युक्ति—स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

पंचतंत्र की प्रासंगिकता और चीन की रणनीति

पंचतंत्र केवल बच्चों की कहानियों का संग्रह नहीं है, बल्कि यह राजनीति, कूटनीति और राज्य संचालन की गूढ़ शिक्षाओं का भंडार है। "मित्रभेद" नामक खंड में बताया गया है कि किसी शक्तिशाली शत्रु को परास्त करने के लिए उसके मित्रों को तोड़ना सबसे प्रभावी नीति होती है। चीन आज उसी सिद्धांत को अपनाकर अमेरिका और उसके एशियाई सहयोगियों—जैसे जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और फिलिपींस—के बीच सामरिक तनाव और विश्वास की खाई पैदा कर रहा है।

दक्षिण चीन सागर में सैन्य उपस्थिति, बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI), ब्रिक्स का विस्तार और एससीओ के माध्यम से चीन ने कई छोटे एशियाई देशों को अपने पाले में कर लिया है। इससे अमेरिकी प्रभाव क्षेत्र में सेंध लग रही है और भारत समेत पूरे एशिया में शक्ति संतुलन बदल रहा है।

भारत के लिए निहितार्थ और अवसर

भारत के लिए यह स्थिति यथास्थितिवादी नहीं हो सकती। एक ओर, चीन का बढ़ता प्रभुत्व क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है; वहीं दूसरी ओर, भारत अपनी कूटनीतिक संतुलनकारी भूमिका को प्रबल कर सकता है। भारत को ‘Act East’ नीति को मज़बूती से लागू करते हुए आसियान देशों के साथ संबंध गहराने होंगे, साथ ही क्वाड जैसे मंचों के माध्यम से सामरिक एकजुटता बनाए रखनी होगी।

भारत को अपनी विदेश नीति में न तो अमेरिका पर पूर्ण निर्भरता रखनी चाहिए, न ही चीन की आक्रामकता के सामने झुकना चाहिए। पंचतंत्र की एक अन्य नीति—"संधि", यानी अवसर आने पर मैत्री करना—का भी विवेकपूर्ण प्रयोग आवश्यक है। भारत को अमेरिका और एशियाई देशों के बीच एक सेतु की भूमिका निभानी चाहिए, न कि एक खेमे का अंग बनना चाहिए।

भविष्य की राह: भारत का नेतृत्वकारी दृष्टिकोण

"नया विश्व क्रम एशिया केंद्रित होता जा रहा है"—यह कथन केवल राजनीतिक आंकड़ों पर आधारित नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक वास्तविकताओं पर आधारित है। भारत यदि अपनी सांस्कृतिक विरासत, कूटनीतिक क्षमता और रणनीतिक दृष्टिकोण को सही ढंग से अपनाता है, तो वह इस एशियाई सदी का नेतृत्व कर सकता है।

चीन की रणनीति का मुकाबला केवल सैन्य या आर्थिक मोर्चे पर नहीं किया जा सकता; इसके लिए भारत को अपनी ‘सॉफ्ट पावर’, विचारधारा और प्राचीन ज्ञान की शक्ति को फिर से वैश्विक विमर्श में लाना होगा। कूटनीति की भाषा में भी अब भारतीयता की झलक होनी चाहिए—जहाँ साम, दाम, दंड के साथ "भेद" की समझ भी हो।

निष्कर्ष

राजनीति केवल शक्ति का नहीं, बुद्धिमत्ता का भी खेल है—यह बात आज की वैश्विक राजनीति में और भी सटीक प्रतीत होती है। पंचतंत्र की नीतियाँ आज चीन की चालों में पुनः जीवित होती दिख रही हैं। भारत के लिए यह समय है कि वह अपने रणनीतिक चिंतन में प्राचीन भारतीय दर्शन और आधुनिक यथार्थ का समन्वय स्थापित करे। तभी वह न केवल चीन की नीतियों का प्रभावी उत्तर दे सकेगा, बल्कि एशिया के भविष्य का दिशा-निर्देश भी बन सकेगा।


नीचे इस लेख से जुड़े कुछ संभावित UPSC GS Mains और Essay Paper के लिए प्रश्न दिए जा रहे हैं, जो समसामयिक घटनाओं और अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर केंद्रित हैं:


GS Paper 2 (Governance, International Relations):

  1. "चीन द्वारा अपनाई गई कूटनीति में पारंपरिक भारतीय रणनीति 'विग्रह' की झलक मिलती है।" इस कथन की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।

  2. "एशिया में चीन का बढ़ता प्रभाव अमेरिका और भारत दोनों के लिए चुनौती है।" इस कथन के आलोक में भारत की रणनीतिक भूमिका का विश्लेषण कीजिए।

  3. पंचतंत्र की राजनीतिक शिक्षाओं की वर्तमान वैश्विक कूटनीति में प्रासंगिकता पर चर्चा कीजिए, विशेष रूप से चीन की विदेश नीति के सन्दर्भ में।

  4. भारत-अमेरिका संबंधों पर चीन की भू-राजनीतिक चालों का क्या प्रभाव पड़ सकता है? उपयुक्त उदाहरणों सहित उत्तर दीजिए।

  5. "नया विश्व क्रम एशिया केंद्रित होता जा रहा है।" इस कथन के परिप्रेक्ष्य में भारत की विदेश नीति की प्राथमिकताओं का मूल्यांकन कीजिए।


Essay Paper:

  1. "राजनीति केवल शक्ति का खेल नहीं, बुद्धिमत्ता की परीक्षा भी है – पंचतंत्र से आधुनिक विश्व तक।"

  2. "21वीं सदी की कूटनीति में प्राचीन ज्ञान की पुनर्वापसी: एक भारतीय परिप्रेक्ष्य."


4-विवाह की स्वतंत्रता, न्यायिक मर्यादा और सामाजिक संतुलन का विमर्श

प्रस्तावना

भारत में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार संविधान द्वारा संरक्षित है, जिसमें जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता भी शामिल है। हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया यह निर्णय कि "माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध विवाह करने वाले युगल पुलिस सुरक्षा का दावा केवल तभी कर सकते हैं जब उनके जीवन या स्वतंत्रता पर वास्तविक खतरा हो", व्यक्तिगत अधिकारों और सामाजिक जिम्मेदारियों के मध्य संतुलन को रेखांकित करता है। यह निर्णय एक व्यापक संवैधानिक और सामाजिक विमर्श की ओर संकेत करता है, जहाँ न्यायपालिका न केवल अधिकारों की सुरक्षा करती है, बल्कि नागरिकों से विवेकपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा भी रखती है।

संवैधानिक परिप्रेक्ष्य और स्वतंत्रता की सीमाएँ

संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत "जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता" का अधिकार दिया गया है, जो समय-समय पर न्यायिक व्याख्याओं के माध्यम से विस्तृत होता गया है। विवाह की स्वतंत्रता भी इसी अधिकार का अभिन्न भाग है। शफीन जहाँ बनाम अशोकन के एम (2018) जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि बालिग व्यक्ति को अपनी मर्ज़ी से विवाह करने का मौलिक अधिकार है।

हालाँकि, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह ताज़ा निर्णय यह इंगित करता है कि अधिकारों के प्रयोग के साथ उत्तरदायित्व भी जुड़ा होता है। जब तक यथार्थ में खतरे की स्थिति न हो, राज्य की सुरक्षा मशीनरी को केवल पारिवारिक असहमति के आधार पर सक्रिय करना पुलिस संसाधनों का दुरुपयोग हो सकता है।

न्यायपालिका की भूमिका: अधिकारों की प्रहरी या संतुलन की मार्गदर्शिका?

भारतीय न्यायपालिका का दायित्व न केवल मौलिक अधिकारों की रक्षा करना है, बल्कि सामाजिक और संस्थागत संतुलन को भी बनाए रखना है। न्यायालयों के समक्ष जब व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक मर्यादा आपस में टकराती हैं, तब न्यायपालिका का विवेक निर्णायक बनता है।

उदाहरण स्वरूप, अंतर-धार्मिक या अंतर-जातीय विवाहों के मामलों में जहां वास्तविक खतरे की आशंका होती है, वहाँ उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार पुलिस सुरक्षा प्रदान की है। किंतु यह सुरक्षा एक 'राइट' नहीं, बल्कि 'केस-बाय-केस' विवेचना के अधीन दी जाती है।

सामाजिक दृष्टिकोण और पारिवारिक संस्था

भारतीय समाज में विवाह केवल दो व्यक्तियों के मध्य संबंध नहीं, बल्कि दो परिवारों का सामाजिक अनुबंध भी माना जाता है। ऐसे में जब युवा युगल पारंपरिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध जाकर विवाह करते हैं, तो सामाजिक और पारिवारिक तनाव उत्पन्न होना सामान्य है।

हालांकि यह तनाव किसी भी तरह से हिंसा या प्रताड़ना का औचित्य नहीं बनाता, फिर भी राज्य की भूमिका तभी बनती है जब यथार्थ में हिंसा या प्रताड़ना का जोखिम सामने हो। यह ज़िम्मेदारी युगलों की भी बनती है कि वे अपने अधिकारों का प्रयोग विवेकपूर्वक करें और राज्य संसाधनों का अनुचित लाभ न उठाएँ।

निष्कर्ष
इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला हमें यह सोचने पर विवश करता है कि स्वतंत्रता का प्रयोग केवल एक अधिकार नहीं, बल्कि उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार का भी प्रतीक होना चाहिए। पुलिस सुरक्षा का दावा केवल व्यक्तिगत भावनात्मक आधार पर नहीं, बल्कि खतरे की ठोस आशंका पर आधारित होना चाहिए।

आज जब युवा पीढ़ी स्वतंत्रता के प्रति सजग है, वहीं उसे यह भी समझना होगा कि सामाजिक संतुलन और न्यायिक मर्यादा को भी समान महत्व दिया जाना चाहिए। इस संदर्भ में न्यायपालिका एक मार्गदर्शक की भूमिका निभा रही है, जो न केवल अधिकारों की प्रहरी है, बल्कि सामाजिक विवेक की संरक्षक भी है।


यह विषय समकालीन समाज, संवैधानिक अधिकारों और न्यायिक व्याख्याओं से संबंधित है, इसलिए इससे जुड़े संभावित UPSC प्रश्न (विशेष रूप से GS Paper 2 और निबंध पेपर) इस प्रकार हो सकते हैं:


GS Paper 2 (Governance, Constitution, Polity, Social Justice)

  1. "विवाह की स्वतंत्रता संविधान द्वारा प्रदत्त एक मौलिक अधिकार है, परंतु इसके प्रयोग की सीमा और जिम्मेदारी भी न्यायालय द्वारा निर्धारित की जाती है।" — इस कथन की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।

  2. विवाह, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और राज्य की सुरक्षा जिम्मेदारी के बीच संतुलन स्थापित करने में न्यायपालिका की भूमिका पर चर्चा कीजिए।

  3. पुलिस सुरक्षा और जीवन की वास्तविक खतरे की अवधारणा पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के हालिया फैसले का विश्लेषण कीजिए।

  4. क्या आप सहमत हैं कि माता-पिता की असहमति मात्र से विवाहित युगल को पुलिस सुरक्षा का अधिकार नहीं मिलना चाहिए? अपने उत्तर को संविधान और न्यायालय के दृष्टिकोण से स्पष्ट कीजिए।


Essay Paper (निबंध)

  1. "स्वतंत्रता का अर्थ मनमानी नहीं, विवेकपूर्ण उत्तरदायित्व है।" — विवाह की स्वतंत्रता के संदर्भ में चर्चा कीजिए।

  2. "व्यक्तिगत अधिकार बनाम सामाजिक मर्यादाएँ: भारतीय संदर्भ में संघर्ष और सामंजस्य" — इस विषय पर तर्कसंगत निबंध लिखिए।

  3. "न्यायपालिका: व्यक्तिगत अधिकारों की प्रहरी या सामाजिक संतुलन की मार्गदर्शिका?" — विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से मूल्यांकन कीजिए।


5-संपादकीय लेख: वक्फ अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम निर्देश – न्यायिक संतुलन और सामाजिक सद्भाव की पहल

सुप्रीम कोर्ट द्वारा वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर दिए गए अंतरिम निर्देश केवल एक कानूनी अंतरिम राहत नहीं हैं, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र के न्यायिक विवेक और सामाजिक संतुलन की जीवंत मिसाल भी हैं। यह आदेश उस संवेदनशील क्षण पर आया है जब देशभर में वक्फ अधिनियम के प्रावधानों को लेकर सामाजिक तनाव और वैचारिक टकराव सामने आ रहे थे।

विवाद की पृष्ठभूमि

वक्फ अधिनियम को संशोधित कर उसमें कुछ ऐसे प्रावधान जोड़े गए, जो संपत्ति के स्वामित्व और प्रबंधन को लेकर कई समुदायों के बीच असंतोष का कारण बने। सबसे अधिक चिंता का विषय वह प्रावधान था, जिसके अनुसार वक्फ संपत्ति को बिना पर्याप्त न्यायिक प्रक्रिया के वक्फ घोषित किया जा सकता है या उससे हटाया जा सकता है। यह ना केवल व्यक्तिगत संपत्ति अधिकारों के उल्लंघन की आशंका को जन्म देता है, बल्कि न्याय के बुनियादी सिद्धांतों पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है।

सुप्रीम कोर्ट की मध्यस्थता

सर्वोच्च न्यायालय ने समय रहते हस्तक्षेप कर स्थिति को नियंत्रित किया। वक्फ अधिनियम के विवादित प्रावधानों पर रोक लगाते हुए, अदालत ने ‘स्थिति यथावत’ का आदेश देकर यह सुनिश्चित किया कि कानून के दुरुपयोग या जल्दबाज़ी में किसी पक्ष के हितों का हनन न हो। साथ ही, नई नियुक्तियों पर रोक और केंद्र एवं राज्यों से जवाब मांगकर अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि वह केवल एकपक्षीय दलीलों के आधार पर निर्णय नहीं करेगी, बल्कि सभी पक्षों को न्यायोचित अवसर देगी।

लोकतंत्र और न्याय का संतुलन

इस पूरे प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका केवल विवाद सुलझाने वाली नहीं रही, बल्कि उसने विधायिका और कार्यपालिका के बीच न्यायिक संतुलन का भी परिचय दिया। ऐसे समय में जब भावनाएं उफान पर होती हैं और सड़कों पर गुस्सा दिखता है, न्यायपालिका का शांत, संतुलित और संविधानसम्मत रुख लोकतंत्र की आत्मा को सशक्त बनाता है।

आगे की राह

हालांकि अंतरिम आदेश राहत लेकर आया है, लेकिन अंतिम निर्णय अब भी लंबित है। यह आवश्यक है कि इस विषय पर सभी पक्ष बिना उग्रता के, कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से अपनी बातें रखें। सरकार को भी चाहिए कि वह कानून बनाते समय व्यापक परामर्श प्रक्रिया अपनाए और अल्पसंख्यक समुदायों की आशंकाओं का सम्मान करे।

निष्कर्ष

वक्फ अधिनियम से जुड़ा यह विवाद केवल एक विधिक बहस नहीं, बल्कि यह सामाजिक समरसता, संपत्ति के अधिकार, और राज्य की धर्मनिरपेक्ष भूमिका से गहराई से जुड़ा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने अंतरिम निर्देशों के माध्यम से यह दिखा दिया है कि जब विधायिका और कार्यपालिका से उम्मीदें धूमिल हो जाती हैं, तब न्यायपालिका संविधान की रक्षा के लिए सबसे मज़बूत स्तंभ बनकर सामने आती है।

यह निर्णय न केवल वक्फ अधिनियम की वैधता की परीक्षा है, बल्कि यह हमारे लोकतंत्र की परिपक्वता और संवैधानिक मूल्यों की कसौटी भी है।


दैनिक समसामयिकी: 16 अप्रैल 2025👈

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